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उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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परन्तु मेरा राजकीय कार्य सरस नहीं था। इस सब समय देवव्रत राज्य-भर वहन करता रहा। वह एक सुयोग्य शासनकर्त्ता था। उसने अपने राज्य में प्रजा को सुख और आराम पहुँचाने में कोई कमी उठा नहीं रखी। पूर्ण राज्य में धन-धान्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। प्रजागण के लिए प्रत्येक प्रकार की सुख-सुविधा प्रस्तुत थी। प्रायः लोग धर्मात्मा अर्थात् राज्य-नियम के मानने वाले थे।
राज्य के पास एक सुदृढ़ सेना थी, जिसके कारण कुरुवंशीय भारत के सम्राट्-पद आसीन थे। कामभोज से अंग-देश तक सब राज्य हस्तिनापुर को कर देते थे। और यदि कोई राज्य किसी वर्ष कर न दे पाता तो भीष्म की भृकुटि चढ़ी देखकर ही कर उगल देता था।
इस पर भी भीष्मजी प्रसन्न नहीं थे। राज्यमाता सत्यवती बहुत प्रसन्न थीं। वे पौत्रों को खेलते-कूदते देख मन में फूली नहीं समाती थीं। अम्बिका और अम्बालिका सर्वथा असन्तुष्ट थीं।
जब धृतराष्ट्र ग्यारह वर्ष का हुआ तो राजमाता ने उसका राज्याभिषेक करवाने के लिए प्रस्ताव रख दिया। इस पर भीष्मजी ने मुझको इस विषय में राय करने के लिए बुला भेजा। उनकी आज्ञा थी कि मैं उनसे सायंकाल सर्वथा एकान्त में मिलूँ।
जब मैं उनके कक्ष में पहुँचा, तो वे राज्यकुमारों के विषय में पूछने लगे। उन्होंने पूछा, ‘‘संजयजी! राजकुमारों की शिक्षा कैसी चल रही है?’’
‘‘ठीक चल रही है महाराज! इस पर भी जैसे वे हैं, वैसे ही तो बन सकते हैं।’’
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