उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘सन् १८५७ के भारत-अंग्रेज युद्ध में भी अंग्रेजों की हिन्दुस्तानिनयों के प्रति घृणा ही कारण थी। उस समय कई कारणों से भारतीय पक्ष की पराजय हुई थी, परन्तु द्वितीय विश्व-युद्ध के उपरान्त तो सेना के विद्रोह में भारत की सामान्य जनता भी सम्मिलित हो गयी थी।
‘‘बम्बई, जबलपुर तथा एक सीमा तक कराची में बगावत हुई तो पूर्ण देश में विद्युत्-तरंग के तुल्य चंचलता उत्पन्न हो गयी। अंग्रेज डर गया और उसने राज्य छोड़ विलायत को कूच कर दिया।’’
‘‘तो अंग्रेज ने भी कुबेर की भाँति समझ लिया कि सेना उनकी रक्षा नहीं करेगी?’’ गरिमा ने कह दिया।
‘‘हाँ।’’ कुलवन्तसिंह ने स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘अंग्रेज ने भी समझा था कि भारत रूपी लंका पर यहाँ के निवासियों की सहायता से ही राज्य चल सकेगा। जैसे कुबेर ने भारी संख्या में सजातीय वहाँ बसा कर राक्षसों से एकमत होने की योजना नहीं बनायी थी, इसी प्रकार अंग्रेज ने यहाँ रहकर यहाँ के लोगों से एकरूपता उत्पन्न करने का यत्न नहीं किया था। परिणाम यह हुआ था कि हिन्दुस्तानी और अंग्रेज एक नहीं हो सके। प्रजा और राजा में एकरूपता उत्पन्न नहीं हो सकी और इनको भी कुबेर की भाँति यहाँ से जाना पड़ा है।’’
‘‘परन्तु क्या हिन्दुस्तानी भी रावण के देवलोक पर आक्रमण की भाँति इंगलैण्ड पर आक्रमण करेंगे?’’
‘‘यह आवश्यक नहीं कि इंगलैण्ड पर धावा बोला जाये। परन्तु हिन्दुस्तानियों ने भूमण्डल पर से अंग्रेज की प्रतिष्ठा को समाप्त करने में भारी यत्न किया है। अंग्रेज युद्ध के उपरान्त उतनी उन्नति नहीं कर सका, जितनी कि पश्चिमी जर्मनी, जापान और फ्रांस ने कर ली है। इसमें मुख्य कारण यह रहा है कि अंग्रेज की प्रतिष्ठा कम करने में हिन्दुस्तानी यत्न करते रहे है।’’
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