उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘जहाँ आप मिथ्या समाधि लगाये बैठे थे। वहाँ से एक कोस के अन्तर पर मेरा विमान पड़ा मिल जायेगा।’’
‘‘पर तुम चोरी-चोरी क्यों आयें थे?’’
‘‘मैं देखना चाहता था कि तुम वास्तविक समाधि में हो अथवा तुम्हारी समाधि धोखे की टट्टी है।’’
‘‘तो क्या देखा है?’’
‘‘यही कि तुम मुझसे कम छली नहीं हो। जब मेरे पूर्वज पाताल देश में गये थे तो वहाँ के लोगों की पूजा सीख आये हैं। वह है लिगायतबाद। उसमें पुरुष-लिंग की पूजा की जाती है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ। परन्तु मूर्ख राक्षसों को यह बताने के लिये कि मैं भी उनके मत का हूँ, मैं भी उसकी पूजा करता हूँ।
‘‘जब देवलोक पर आक्रमण किया था तो लिंग की पूजा कर ही आक्रमण आरम्भ किया था।
‘‘मैं यह समझता हूँ कि तुम मुझसे कम छली नहीं हो।’’
बाली फिर हँसा। हँसकर उसने कहा, ‘‘तो तुमने महिष्मति के राजा अर्जुन को सन्देश भेजने से पहले भी पूजा की थी?’’
‘‘नहीं। तब तो नहीं की थी।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘जिनको दिखाने के लिये पूजा करता हूँ, वे वहाँ नहीं थे।’’
‘‘तो मैं एक बात बताऊँ। सुनोगे?’’
‘‘हाँ।’’
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