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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘तुमने पूजा नहीं की थी। इसी कारण पकड़ बन्दी बना लिये गये थे और मुझे विश्वास है कि मुझे पकड़ने आने से पहले भी पूजा कर नहीं आये थे।’’

‘‘और तुम मुझे पकड़ पाये हो; क्योंकि तुम पूजा कर रहे थे?’’ ‘‘तुमने देखा होगा कि मैं तो लिंग की पूजा नहीं कर रहा था। जहाँ बैठा था वहाँ कोई लिंग की मूर्ति नहीं थी।’’

‘‘तो फिर तुम किसकी पूजा कर रहे थे?’’

‘‘जो अमूर्त्त है। वह महान शक्तिशाली है। सर्वव्यापक है। सबके मन की बात जानने वाला है। जब मैं उसमें ध्यान लगा रहा था तो वह मेरे कान में कह गया था कि कोई शक्तिशाली व्यक्ति मुझे छल से बन्दी बनाने आ रहा है।

‘‘इस पर मैंने आँख खोली तो तुम दबे-पाँव मेरी ओर आते दिखायी दिये। उसके पीछे की बात तुम जानते हो।’’

‘‘तो मैं भी तुम्हारे देवता का पुजारी बन जाता हूँ। मुझे अपना गुरु भाई बना लो।’’

‘‘उसकी प्रथमा पूजा यह है कि वचन का पालन करो। सत्य बोलना और सत्य का पालन करना सबसे बड़ी पूजा है।’’

‘‘यह तो मैं कर रहा हूँ।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘मैंने देवताओं को वचन दिया है कि मैं उनको अब कष्ट नहीं दूँगा। मैं इसका पालन कर रहा हूँ।’’

‘‘परन्तु तुम कष्ट तो दे रहे हो?’’

‘‘कहाँ?’’

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