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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘मैं भी तो देवताओं की सन्तान हूँ। तुम मुझे ही पकड़ने आये थे।’’

रावण मुस्कराया और बोला, ‘‘राजन्! मुझे ज्ञात नहीं था। यदि आप भी देवता हैं तो मैं समझता हूँ कि मेरी आपसे सन्धि है।’’

‘‘यह इस प्रकार नहीं। मैं लंकाधिपति से पृथक् सन्धि करना चाहता हूँ।’’

‘‘तो राजन्! किसी भले लोगों के बैठने योग्य स्थान पर बैठकर बातचीत कर लें तो ठीक होगा। जो कुछ वचन होगा, मैं उसका पालन करूँगा।’’

इसके उपरान्त बाली और रावण में कई दिन तक वार्त्तालाप होता रहा और फिर दोनों अभित्र मित्र बन गये।

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