उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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जब किष्किन्धा नगरी में रावण और बाली में सन्धि हो रही थी तो लगभग उसी समय विश्वामित्र अयोध्या में राजप्रासाद के द्वार पर पहुँच द्वारपालों को कह रहा था, ‘‘महाराज को सूचना दो कि राजर्षि विश्वामित्र पधारे हैं।’’
विश्वामित्र के साथ उसके चार शिष्य भी थे। द्वारपाल राजर्षि विश्वामित्र की कथा और उसकी वशिष्ठजी से युद्ध की बात जानता था। अतः वह आगन्तुक ऋषि का नाम सुनते ही भागा महाराज दशरथ को सूचना देने अन्तःपुर में जा पहुँचा।
दासी द्वारा भीतर सूचना भेज उत्तर की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। दासी गयी और तुरन्त ही लौटी। उसने द्वारपाल को बताया, ‘‘महाराज की आज्ञा है कि महर्षि को आदर सहित अतिथि-गृह में ठहराया जाए और उनकी विशेष सेवा का प्रबन्ध हो। महाराज स्वयं वहाँ ही पहुँच रहे हैं।’’
राजर्षि का ऋषियीचित सत्कार और सेवा की गयी। महर्षि अभी विश्राम कर उठे ही थे कि महाराज दशरथ अपने पुरोहित वशिष्ठ और मन्त्रियों सहित अतिथि-गृह पहुँच गये। महाराज ऋषि के चरण-स्पर्श कर हाथ जोड़ सामने खड़े हो गये।
विश्वामित्र ने महाराज को आशीर्वाद दिया और सामने बैठने को कहा। जब महाराज और उनके साथ आये सब मन्त्रीगण बैठ गये तो विश्वामित्र ने महाराज का, महारानियों का तथा पुत्रों का कुशल-मंगल पूछा। यथोचित उत्तर पा ऋषि ने कहा, ‘‘हम एक विशेष प्रयोजन से आये है। आपकी उस कार्य में सहायता की आवश्यकता है। यदि आप मेरी बात मानने का वचन दें तो मैं कहूँ।’’
‘‘ऋषिवर! यह सब राज-पाट और मैं भी सपरिवार आपकी सेवा के लिये उपस्थित हूँ। आज्ञा करिये, यहाँ से कोई भी व्यक्ति निराश नहीं जाता।’’
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