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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘महाराज!’’ ऋषि ने अपना आशय बताने के लिए कहा, ‘‘भगवान आपका कल्याण करे। मैं अपने सिद्धाश्रम में एक यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा हूँ। उसमें वहाँ कुछ राक्षस विघ्न डालते रहते हैं। मैं चाहता हूँ कि जब तक मेरा यज्ञ पूर्ण नहीं हो जाता, मेरी और यज्ञ की रक्षा करने वाला कोई वीर पुरुष वहाँ रहे। इस कार्य के लिये मुझे आपको दो पुत्र राम और लक्ष्मण उपयुक्त समझ में आये हैं। मैं चाहता हूँ कि आप उनको मेरे साथ भेज दें। यज्ञ समाप्त होने पर मैं उनको यहाँ छोड़ जाऊँगा।’’

राजा दशरथ जानता था कि सिद्धाश्रम ऐसे वन में हैं जहाँ का कोई राजा नहीं। वहाँ राक्षसों का बाहुल्य है। राजा का विचार था कि राम और लक्ष्मण अभी सुकुमार हैं। वे राक्षसों से युद्ध करने में सक्षम नहीं। इस कारण वह अवाक् महर्षि का मुख देखता रह गया।

विश्वामित्र ने कुछ देर तक राजा के उत्तर की प्रतीक्षा की और फिर पूछ लिया, ‘‘राजन्! क्या विचार कर रहे हैं?’’

‘‘मैं दस सहस्त्र सेना के साथ स्वयं आपके आश्रम की रक्षा के लिये चल सकता हूँ। राम और लक्ष्मण अभी बालक है। इन्होंने अभी तक कोई युद्ध नहीं देखा।’’

‘‘नहीं राजन्! तुम नहीं समझते। यज्ञ की रक्षा के लिये सेना तो स्वयं ही यज्ञ में विघ्न बन जायगी। साथ ही मैं जानता हूँ कि जो ये दो बालक कर सकते हैं, तुम्हारी एक कोटि सेना भी नहीं कर सकेगी।

‘‘मुझे आपके दोनों पुत्र चाहियें। बताओं, हैं स्वीकार अथवा मैं यहाँ से निराश लौट जाऊँ?’’

विश्वामित्र ने वशिष्ठजी की ओर देखा। जब वह भी मौन बैठा रहा तो विश्वामित्र उठ खड़ा हुआ। इसका अभिप्राय था कि वह जा रहा है। उसके उठने पर राजा दशरथ ने मुनि के पाँव पकड़ लिये और कहा, ‘‘भगवन्! मुझ पर दया करें। मुझे मन्त्रियों और पुरोहितजी से सम्मति कर लेने दीजिये।’’

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