उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
विश्वामित्र बैठ गया और वशिष्ठजी से बोला, ‘‘यज्ञ की रक्षा किसी देश अथवा नगर की रक्षा के समान नहीं होती। महर्षि वशिष्ठ इस बात को जानते हैं। वहाँ तो एक अथवा दो सिद्ध धनुधंर चाहियें, जो रक्षा का कार्य शान्ति से कर सकें और जब वे सुरक्षा कार्य कर रहे होंगे तब हम शान्तिपूर्वक यज्ञ कार्य चला सकेगे।’’
अब वशिष्ठजी ने राजा दशरथ को सम्बोधन कर कहा, ‘‘राजन्! राजर्षि ठीक कहते हैं। राम और लक्ष्मण वह कुछ कर सकेंगे जो आप की पूर्ण सेना नहीं कर सकेगी।
‘‘मेरी सम्मति है राजर्षि का पूजन कर इनको राम तथा लक्ष्मण के साथ विदा कर दिया जाये।’’
इस पर राजा का मुख उतर गया। राजा ने एक बार दयनीय दृष्टि से वशिष्ठ और विश्वामित्र की ओर देखकर कहा, ‘‘भगवन्! मुझे उनके जीवन का भय लग रहा है।’’
‘‘महाराज! जहाँ राजर्षि उपस्थित होंगे वहाँ मृत्यु समीप नहीं फटक सकती।’’
इस कथन से उत्साहित हो राजा ने सेवक को भेज राम और लक्ष्मण को वहीं बुला भेजा और उनको समझाकर विश्वामित्र के साथ कर दिया।
मार्ग में चलते हुए विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को अपने विषय में और अपने यज्ञ के विषय में समझाया। नारद मुनि के कथनानुसार विश्वामित्र ने राम इत्यादि को रावण के साथ युद्ध के लिये तैयार करना था और इस युद्ध की तैयारी के लिये रावण से युद्ध करने की आवश्यकता पर बताना आवश्यक था। इसके लिये रावण और अपने में मतभेद बताने की आवश्यकता थी। इसी उद्देश्य से विश्वामित्र ने अपनी ही जीवन-कथा से आरम्भ किया।
उसने चलते हुए पूछा, ‘‘राम! जानते हो कि मैं कौन हूँ?’’
‘‘महाराज! इतना ही जानता हूँ कि आप एक ऋषि है और सिद्ध आश्रम में एक यज्ञ कर रहे हैं।’’
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