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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘एक बहुत बड़ा राज्य काम-राज्य के नाम से हमारे परिवार का था। परिवार के लोग सब प्रकार का कार्य करते थे। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी थे। महाराज कुश ने सबको सन्तुष्ट रखा हुआ था।

‘‘महाराज कुश के एक पुत्र थे गाधी। वह मेरे पिता थे। वह बाल्य-काल से ही राजसी स्वभाव से विभूषित थे और अपने समय में मैंने एक एक बहुत बड़ा राज्य स्थापित कर लिया था।

‘‘मेरा राज्य कई सौ योजन लम्बा और कई सौ योजन चौड़ा था। राज्य में नदी, नाले, पहाड़, सरोवर सब प्रकार के सुन्दर सुखकारक स्थान थे। मेरे भी कई पुत्र और कन्यायें हुईं। मैंने राज्य-भार अपने एक लड़के के हाथ में दिया और भूमण्डल पर भ्रमण करने निकल पड़ा।

‘‘सिन्ध पार कर मैं गंगा तक आया। मेरे भ्रमण में मेरे साथ कई सहस्त्र मेरे सैनिक और कर्मचारी थे। हम गंगा के किनारे भ्रमण कर रहे थे। चित्रक वन में मुझे वहाँ के एक वनवासी ने यह सूचना दी कि उस वन में एक महा तेजस्वी ऋषि रहते हैं। बहुत दूर-दूर से लोग उनके दर्शन करने तथा उनका उपदेश सुनने आते हैं।

‘‘इस वृत्तान्त से मेरे मन में उन ऋषि को मिलने की लालसा उत्पन्न हो गयी। मैने उस वनवासी से पूछा, ‘क्या नाम है उन ऋषिजी का?’’

‘‘उसने बताया, ‘महाराज! लोग उन्हें वशिष्ठ कहते हैं।’’

‘‘मैं वशिष्ठजी के आश्रम को चल पड़ा। महर्षि वशिष्ठ अत्यन्त तेजस्वी और सरलचित्त व्यक्ति थे। वह योग्य भी बहुत थे। मैंने राजसी व्यवहार के अनुसार उनको स्वर्ण और वस्त्रों की भेट की और उनके मनोहर उपदेश को सुनकर अति प्रभावित हुआ।’’

राम ने पूछा, ‘‘किस विषय पर उपदेश हुआ था?’’

‘‘उन्होंने स्वंकल्याण और लोक-कल्याण पर अति मनोहर प्रवचन कहा। मैं उसे सुनकर गद्गद प्रसन्न हो गया।

‘‘हमारे राज्य में तो सब-कुछ राजा के लिये ही होता था, परन्तु वशिष्ठजी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से बताया कि अपना वही है जो दूसरे के कल्याण में प्रयुक्त हो।

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