उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘मैं जब ऋषिजी से विदा लेने लगा तो उन्होंने पूछ लिया, ‘कहाँ ठहरे हो, राजन्?’
‘‘मैंने बताया, ‘लगभग आधे कोस पर मेरी सेना ने शिविर डाला हुआ है।’
‘तो आज हमारा आतिथ्य स्वीकार किया जाये।’
‘‘मैं उस आश्रम की अवस्था देख यह समझा कि ऋषिजी मुझे दण्ड दे रहे हैं। कारण यह कि मेरे लिये बहुत ही स्वादिष्ट पकवान बनाये जाते थे। मेरा अपना पाचक अत्यन्त कुशल समझा जाता था। इस पर भी मैंने ऋषिजी के निमन्त्रण को अस्वीकार नहीं किया। मैंने केवल यह कहा, ‘भगवन्! आपकी अत्यन्त कृपा है। परन्तु मैं तो अपने सैनिकों के साथ बैठकर ही भोजन करता हूँ।’
‘‘तो सब सैनिकों को यहीं बुला लो।’
‘परन्तु वे कई सहस्त्र हैं। उनको खिलाने-पिलाने में आपको भारी कष्ट होगा।’
‘नहीं होगा। आज महाराज विश्वामित्र अपने पूर्व दल-बल सहित एक वनवासी ऋषि के अतिथि होंगे।’
‘‘मैं इन्कार नहीं कर सका और मैंने कहा, ‘तो महाराज! मैं सेना सहित दो घड़ी में आऊँगा। अब मैं चलता हूँ और सेना के साथ ही आऊँगा।’
‘‘मेरे साथ वन में उस समय मेरी दो पत्नियाँ, तीन पुत्र और दो सहस्त्र से ऊपर सैनिक थे। उन सैनिकों की देख-रेख के लिये लगभग उतने ही सेवक थे। इस प्रकार पाँच सहस्त्र के लगभग लोग आधे प्रहर में ऋषि-आश्रम पर पहुँच गये और यह देख हमारे विस्मय का ठिकाना नहीं रहा कि उस वन में एक बहुत बड़े कनात के भीतर से पकवानें की सुगन्धि आ रही थी। सेना के बैठकर भोजन करने का सुचारु रूप से प्रबन्ध था।
‘‘हमारे आश्रम में पहुँचते ही सेना को एक खुले मैदान में बैठा दिया गया और मेरे तथा सैनिकों के बैठकर भोजन करने के लिये एक पृथक, स्थान बनाया गया था।
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