लोगों की राय

उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

352 पाठक हैं

भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘मैंने इच्छा प्रकट की कि सैनिको को खाकर सन्तुष्ट होते देख लूँ। मैं मन से सन्देह कर रहा था कि भोजन की कमी होने से सैनिक भूखे न रह जायें।

‘‘ऋषि ने मेरी बात मान ली और सब सैनिकों को पहले खिलाने की आज्ञा हो गयी।

‘‘मेरे देखते-देखते वहाँ सैकड़ों ही सेवक भिन्न-भिन्न प्रकार के पकवान बड़े-बड़े थालों में लिये हुए कनात के पीछे से निकल आये और सैनिकों के सामने पत्तल बिछाकर उन पर दाल-भात, विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ, मिष्ठान और उनके साथ पीने के लिये आसव, पानक फलों का रस इत्यादि प्रस्तुत किये गए।

‘‘मैं खड़ा सैनिकों को उन स्वादिष्ट पकवानों को पेट-भर खाते देखता रहा। सैनिक पेट-भर खा-खाकर उठने लगे, तब भी कनात के पीछे से भोजन के भरे हुए परात निरन्तर आ रहे थे।

‘‘मुझे भी अपनी रानियों के साथ बैठाकर भोजन कराया गया। मुझे यह समझ आया कि मेरे शिविर में भी उतना बढ़िया भोजन नहीं बनता था।

‘‘ऋषि ने पूछा, ‘राजन्! सुरा-पान भी करते हो?’’

‘नहीं महाराज! परन्तु क्या वह भी आपके यहाँ तैयार मिलती है?’’

‘‘यहाँ जो कुछ आप माँगें प्रस्तुत हो सकता है।’’

‘तो क्या यहाँ माँस भी उपलब्ध हो सकता है?’

‘हाँ। यदि आपकी इच्छा हो तो माँगिये। किस जन्तु का माँस चाहते हैं?’’

‘नहीं भगवन! मैं आमिष भोजन नहीं करता।’

‘‘मुझे इस सबको देखकर विस्मय हो रहा था। दो घड़ी पूर्व वहाँ कुछ भी नहीं था और इस कम समय में वहाँ जंगल में मंगल हो गया था।

‘‘भोजनोपरान्त जब मैं अपने शिविर को जाने लगा तो मैंने कहा, ‘भगवन! मैं आपके कर्मचारियों के सुप्रबन्ध से अति प्रसन्न हूँ और उनको पुरस्कृत करना चाहता हूँ।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book