उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘हाँ। यह आप जैसे श्रीमानों के योग्य है। इस सब सुप्रबन्ध का श्रेय मेरे शवला कामधेनु को है।’
‘‘मैंने समझा कि ऋषि मेरी हँसी उड़ा रहे हैं। कामधेनु से मैं उनकी शवला नाम की गाय समझा था। शवला चितकबरे रंग के जन्तु को कहा जाता है।
‘‘मैंने कह दिया, ‘तो भगवन्! उसे बुलाइये।’
‘‘शवला को बुलाया गया। वह एक अधेड़ आयु का व्यक्ति था। मैं उसे देख विस्मय करने लगा। मैंने उसे अपने पास से स्वर्ण मुद्राओं से भरी हुई एक थैली दी तो वह ऋषि का मुख देखने लगा। ऋषि उसके देखने का आशय समझ बोले, ‘शवला! ले लो। राजाओं से मिला पुरस्कार तिरस्कार करने योग्य नहीं होता।’
‘‘शवला ने झुककर प्रणाम किया और स्वर्ण मुद्राओं की थैली ले ली। मैंने शवला से पूछा, ‘शवला! महर्षि क्या वेतन देते हैं?’
‘मैं महर्षिजी का सेवक हूँ। यह मेरा पालन-पोषण करते है और मैं इनकी ही देन हूँ। अतः वेतन नहीं पाता।’
‘तो ऐसा करो। तुम हमारे राज्य में चलो। हम तुमको एक सौ स्वर्ण मुद्रा प्रति मास देंगे।’
‘‘इस प्रस्ताव पर राजर्षि ने कह दिया, ‘यह इतना अच्छा और योग्य प्रबन्धक है कि मैं इसे निकालना नहीं चाहता। इस पर भी इसे यहाँ से वेतन नहीं मिलता। यदि यह जाना चाहे तो जा सकता है।’
‘‘शवला ने कह दिया, ‘श्रीमान् तो बड़े-से-बड़े वेतन पर योग्य-से-योग्य प्रबन्धक नियुक्त कर सकते हैं। मैं तो यहीं रहूँगा।’
‘‘इस पर मुझे विस्मय हुआ। मैंने महर्षि को ही कहा, ‘आप इसे आज्ञा करिये कि यह अपनी स्थिति को उज्ज्वल करने के लिये मेरे साथ चला जाये। एक योग्य व्यक्ति तो राजा-महाराजाओं के पास ही रहना चाहिये।’
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