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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘राजन्!’ वशिष्ठजी ने दो टूक बात कर दी, ‘हम इसको आज्ञा नहीं कर सकते। न यहाँ रहने की और न ही यहाँ से जाने की। यहाँ हम वेतन नहीं देते। यह जानता है। अतः यह जाना चाहे तो जा सकता है। हम इसे मना नहीं करते।’

‘शवला ने निश्चित रूप में कह दिया, ‘मैं महर्षिजी की सेवा में ही रहूँगा। यह यहाँ से निकाल भी देगे तो मैं किसी अन्य की सेवा में नहीं जाऊँगा।’

‘‘इस पर मुझे क्रोध आ गया। मैंने उसकी बाँह पकड़ कर अपने साथ बलपूर्वक ले चलने का यत्न किया। उसने एक बार महर्षि की ओर देखा और उन्हें मौन देख झटका दे अपनी बाँह मुझसे छुड़ा कर अपने निवास-स्थान की ओर चल पड़ा।

‘‘मैंने अपने संरक्षकों को, जो महर्षि के आश्रम के बाहर खड़े थे, आज्ञा दे दी, कि उस व्यक्ति को पकड़ कर बन्दी बना लो।

‘‘मेरे संरक्षक उसकी ओर लपके, परन्तु वह जब सबके सामने खड़ा हुआ तो सैनिक वहीं खड़े हो गये जहाँ थे। मैं चकित था कि वे सैनिक उसे पकड़ क्यों नहीं रहे। मैंने आज्ञा दी, ‘पकड़ लो, इस विद्रोही को।’

‘‘सैनिक आगे नहीं बढ़े और बोले, ‘महाराज! यह तो गाय है और सींग खड़े कर हम पर प्रहार करना चाहती है। हम गाय पर शस्त्र नहीं चला सकते।’

‘‘मैंने सेना वापस बुला ली और यह आज्ञा कर दी कि इस शवला को पकड़ लें और यदि न पकड़ में आये तो इस आश्रम को ही लूट लें, जिससे न यह आश्रम रहे और न यह शवला यहाँ रह सकेगा।

‘‘इस पर सेना ने उस विद्रोही को पकड़ने का यत्न किया तो महर्षि आगे आ कहने लगे, ‘राजन्! अब आपने अतिथि का आदर खो दिया है। अतः अब मैं आपको आज्ञा देता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान कर दीजिये।’

‘‘ऋषि की इस आज्ञा से मेरा क्रोध और भी बढ़ गया। मैंने सेना को आज्ञा दी कि इस ऋषि को भी पकड़ लो और इसके आश्रम को उखाड़ दो।

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