उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘इस पर ऋषि अपनी कुटिया में गये और वहाँ से अपना ब्रह्मदण्ड उठा लाये और उस ब्रह्म-दण्ड को चलाने लगे। मेरे देखते-देखते उन्होंने अपने ब्रह्य-दण्ड से मेरी पूर्ण सेना मृत्यु के घाट उतार दी और मुझे अपने दण्ड के बल से वहाँ से उठाकर एक सौ योजन के अन्तर पर फेंक दिया।
‘‘मैंने अपने देश में अपने लड़कों को दूत भेज बुलवा लिया। मेरी दो अक्षौहिणी सेना आयी तो मैं उसको लेकर आश्रम पर आक्रमण करने चल पड़ा।
‘‘मेरी सेना के आने की सूचना पर महर्षि वशिष्ठजी ने भी मेरे सामने सेना लाकर खड़ी कर दी।
‘‘घोर संग्राम हुआ और मेरे सौ पुत्र एवं पूर्ण सेना उस युद्ध-क्षेत्र में मौत के घाट उतार दी गयी।
‘‘इस प्रकार पूर्ण परिवार के समाप्त हो जाने और सेना के पराजित हो जाने पर मैं वही युद्ध-भूमि से कैलाश को चल पड़ा और महादेव की शरण में चला गया।
‘‘मैंने महादेव की बहुत अनुनय-विनय की और वहाँ से मुझे दिव्यास्त्र मिल गये। उन अस्त्रों की सहायता से लड़ने के लिये मैं पुनः वशिष्ठजी के आश्रम पर जा पहुँचा।
‘‘इस बार महर्षि अकेले अपना ब्रह्य-दण्ड लेकर मेरे अस्त्रों का विरोध करने आ खड़े हुए।
‘‘जो भी अस्त्र मैं उन पर चलाता था, वह उसका ब्रह्म-दण्ड से निराकरण कर देते थे। लड़ते-लड़ते महादेव से प्राप्त सब अस्त्र समाप्त हो गये, परन्तु उनका ब्रह्य-दण्ड ज्यों-का-त्यों बना रहा।
‘‘इस पर भयभीत मैं पुनः महादेव के पास पहुँचा और उनको वहाँ से प्राप्त सब अस्त्रों का परिणाम बताया तो महादेवजी सिर हिला-कर बोले, राजन्! हमारे पास उनके ब्रह्म-दण्ड को व्यर्थ करने के लिये कोई अस्त्र नहीं।’
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