उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘तो मैं उन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता?’ मैंने पूछा।
‘नहीं। जब तक तुम्हारे पास भी एक ब्रह्म-दण्ड न आ जाये।’
‘वह कहाँ मिलता है?’
‘देखो राजन्! उनके दण्ड में इतना गुण नहीं है जितना उनके ब्रह्मर्षि होने में है।’
‘और यह कैसे हुआ जा सकता है?’
‘यह देवताओं के पुरोहित ब्रह्मा से पता करो। यदि मैं जानता तो स्वयं ब्रहार्षि-पद के लिये यत्न करता।’
‘‘अतः मैं ब्रह्माजी की सभा में जा पहुँचा। वहाँ से आत्म-शुद्धि के लिये आदेश हो गया और उपाय बता दिया गया।
‘‘मैं उसी की प्राप्ति के लिये कई प्रकार के यज्ञ कर रहा हूँ और एक यज्ञ यहाँ सिद्धाश्रम में कर रहा हूँ। इस यज्ञ को राक्षस पूर्ण होने नहीं देते। इसी के लिये तुम्हें साथ लिये जा रहा हूँ।’’
‘‘और वह वशिष्ठजी कहाँ है?’’
‘‘वह आपके राज-पुरोहित ही है।’’
‘‘तो वह इतने गुणी हैं?’’
‘‘हाँ। उनमें गुण यही है कि वह अपनी श्याघा कभी नहीं करते। किसी के विषय में बुरा नहीं विचार करते। सबके लिये उनके मन में सहानुभूति है और पृथ्वी पर के भले लोगों को एक समान समझते हैं। सब जातियों के बुरे लोगों को एक समान बुरा समझते हैं।’’
राम यह कथा सुन बहुत ही विस्मित हुए।
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