उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘संसार के भोग इतने अधिक हैं कि सबके लिये पर्याप्त नहीं। अतः आसुरी प्रवृत्ति के लोग अधर्माचरण से भूमण्डल की पूर्ण सम्पत्ति को छीना-झपटी से प्राप्त करने का यत्न कर रहे हैं। देवता ऐसा नहीं चाहते। इस कारण बड़े-बड़े सात देवासुर-संग्राम हो चुके हैं।
‘‘वर्त्तमान लंका राज्य में पुनः एक देवासुर संग्राम होने वाला है। यह संग्राम पुराने संग्रामों से भिन्न होगा। इसमें देवता और असुर दोनों परम्परागत देशों के लोग नहीं होंगे।
‘‘अभी तक देवलोक के देवता देवताओं का पक्ष ले लड़ा करते थे और दैव्य लोग आसुरी पक्ष लेते थे, परन्तु इस बार आर्य लोग दैवी पक्ष में होंगे और लंका के राक्षस आसुरी पक्ष में।’’
‘‘गुरुजी! हम भी लड़ेगे इनसे?’’
‘‘यह कहना अभी सम्भव नहीं।’’
‘‘तो आप किस प्रकार कहते हैं कि आर्य लोगों से लंका के राक्षसों का युद्ध होगा?’’
‘‘युद्ध तो राक्षस करेंगे। कारण यह कि वह असुर हो गये हैं। देवताओं से राक्षसों की संधि हो चुकी है और दोनों में संधि तोड़ने की इच्छा नहीं है। इस शान्तिमय वातावरण में राक्षस निश्चय नहीं बैठ सकते। वे निरन्तर किसी-न-किसी प्रकार का भ्रष्टाचार कर रहे हैं।
‘‘इस बार उन्होंने आर्यावर्त पर एक प्रकार से आक्रमण कर रखा है। इसका परिणाम यह होगा कि राक्षसों का आर्यो से युद्ध होगा।’’
‘‘यह कब तक होगा?’’
‘‘जब आर्य लोग एक राजा की छत्रछाया में ही लड़ने के लिये तैयार हो जायेंगे।’’
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