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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


कुलवन्त ने विचार किया और तैयार हो गया। दोनों मित्र बाहर जाने लगे कि कुलवन्त की दृष्टि एक व्यक्ति पर पड़ी जिसे वह समझता था कि पहचान गया है। उसे वह अमृतलाल प्रतीत हुआ। वह एक क्षण तक विचार करने लगा कि यह भ्रम तो नहीं।

वह व्यक्ति बहुत बढ़िया, युरोपियन ढंग के सिविलियन पहरावे में था और उसकी बाँह-में-बाँह डाले एक युवती साथ-साथ आ रही थी। दोनों किसी हवाई जहाज से उतर उधर ही जा रहे थे जिधर ये दोनों मित्र जा रहे थे।

देखते-देखते युगल भीड़ में विलीन हो गया। अब तक कुलवन्त सतर्क हो चुका था और वह इरविन को छोड़ पत्तन के द्वार की ओर लपका। वह आशा करता था कि द्वार पर वह उन दोनों से पहले पहुँच जायेगा और वहाँ वह इस व्यक्ति को भली-भाँति देख और पहचान सकेगा।

इरविन समझ नहीं सका कि क्या बात हैं? भीड़ में से लगभग भागता हुआ कुलवन्त जा रहा था और उसका मित्र इरविन भी लम्बे-लम्बे पग उठाता हुआ उसके पीछे-पीछे था।

दोनों पत्तन के द्वार पर जा पहुँचे। उनके जल्दी-जल्दी करने पर भी कई लोग बाहर जा चुके थे। कुलवन्त ने बाहर निकल चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। रात के छः बज रहे थे। यद्यपि अभी दिन था, परन्तु धुंध के कारण दूर तक दिखाई देना कठिन था। सड़क पर कोहरा छाया हुआ था। लोग टैक्सियों में और प्राइवेट गाड़ियों में सवार हो जा रहे थे।

जब उसे कोई जाना-पहचाना मुख दिखायी नहीं दिया तो वह निराश हो गया।

उस समय तीन हवाई जहाज आये थे और तीनों के यात्री जा चुके थे। इसी समय एक अन्य हवाई जहाज़ के आने की सूचना दी गयी। यह ऐडनबरा से आ रहा था। कुलवन्त अब टैक्सी की ओर चला तो इरविन ने पूछा, ‘‘मित्र! क्या था?’’

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