उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘कोई जाना-पहचाना व्यक्ति था। उसकी एक ही झलक प्लेन से उतरते हुए देखी थी।’’
‘‘कौन था?’’
‘‘मेरा एक सम्बन्धी, जिसकी मैं यहाँ होने की आशा नहीं करता था।’’
‘‘गलती भी हो सकती है। वह कोई और भी हो सकता है।’’
‘‘हो सकता है।’’ इतना कह कुलवन्त इरविन के साथ चल पड़ा। कुलवन्त विचार करने लगा या कि क्या उसमें इतना दृष्टिकोण आ गया है कि वह इस प्रकार की भूल कर सकता है। एक बात उसे स्मरण आ गयी थी। उस व्यक्ति के साथ जो स्त्री थी, उसकी स्कर्ट का रंग मौरून था और उस रंग के स्कर्ट वाली कोई स्त्री उसके देखते हुए पत्तन से बाहर नहीं निकली थी। यह सम्भव है कि वह युगल उसके द्वार पर पहुँचने से पहले निकल गया हो।
वह और इरविन टैक्सी में बैठ चुके थे और इरविन टैक्सी वालों को घर का पता बताने वाला ही था कि कुलवन्त ने उसे रोक कर कहा, ‘‘मैं एक बार फिर द्वार पर जा रहा हूँ। आप टैक्सी में बैठे। मैं अभी आया।’’
इतना कह वह पुनः पत्तन के द्वार पर जा पहुँचा। इस बार उसका प्रयास सफल हुआ। उसे मौरून रंग के स्कर्ट वाली स्त्री आती दिखायी दी। ज्यों ही वह स्त्री और उसका साथी द्वार से निकले कि वह दोनों का मार्ग रोक बोला, ‘‘अमृत!’’
अमृत एक क्षण के लिये झिझका। फिर तुरन्त अपने पर नियन्त्रण कर हिन्दी में बोला, ‘‘जीजाजी! आप यहाँ क्या कर रहे हैं?’’
‘‘यह तो मैं पीछे बताऊँगा।’’ कुलवन्त ने भी हिन्दी भाषा में ही बात की, ‘‘पहले तुम बताओ कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’’
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