उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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कुलवन्त ने अमृत को पत्र लिखा। उसका लियौन मे नाम ए० डी-रोमल था और पत्र-व्यवहार लियौन के पते पर ही होने लगा है।
कुलवन्त लन्दन में रहते हुए भी उसे पत्र लिखा करता था और भारत लौटते समय वह एक दिन उसको मिलने गया था। सूसन डी-रोमल उस समय गर्भवती थी और प्रत्यक्ष रूप में वह इस घटना से प्रसन्न थी। वह अमृत को विवाह करने के लिये कह रही थी।
‘‘अमृत विवाह करना नहीं चाहता था इस कारण पति-पत्नी में एक तनाव की अवस्था हो गयी थी।
कुलवन्त जब डी-रोमल के मकान पर पहुँचा तो अमृत घर पर ही था। परन्तु कुलवन्त का स्वागत सूसन ने किया और उसे अपने मकान में ठहरा लिया। उस समय सायं चाय का समय था, अतः कुलवन्त पति-पत्नी के साथ चाय पीने जा बैठा। उसे वहाँ बैठते ही समझ आ गया कि उसके पहुँचने से पहले वे परम्परा किसी दुःखद बात की चर्चा कर रहे थे।
कुलवन्त ने पूछ लिया, ‘‘अमृत पत्नी से लड़ पड़े हो क्या?’’
‘‘कैसे कहते हो यह?’’ अमृत ने पूछा।
‘‘तुम दोनों के मुख देखकर यही प्रतीत होता है। देखो अमृत! मैं भी अपनी पत्नी से कभी-कभी लड़ता रहता हूँ। जब लड़ता हूँ तो पत्नी का मुख ऐसा ही हो जाता है जैसा कि अब सूसन का हो रहा है।’’
अमृत खिलखिलाकर हँस पड़ा। कुलवन्त भी हँसने लगा। सूसन हँसी नहीं। उसने कहा, ‘‘आप दोनों हँस रहे हैं, परन्तु मैं यह हँसने का विषय नहीं समझती।’’
‘डीयर सिस्टर!’’ कुलवन्त ने कहा, ‘‘मैं तो इस बात पर हँसा हूँ कि मैंने आपके मुख पर कुछ वैसे ही लक्षण देखे थे जो मैं अपनी रूठी हुई पत्नी के मुख पर देखा करता हूँ। शेष बात यह कि तुम किस लिये रूठी हो, यह तो मुझे पता नहीं। न ही उस अज्ञात बात पर हँसा हूँ।’’
‘‘तो मैं बताती हूँ।’’ सूसन ने कुलवन्त के लिये चाय बनाते हुए कहा, ‘‘मैं माँ बनने वाली हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरा बच्चा ‘इललैजिटिमेट’ दर्ज हो।’’
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