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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


अमृत ने कह दिया, ‘‘मैंने कुछ भी झूठ नहीं बोला। मैंने इन्हें बताया था कि लियौन में पहुँचने के उपरान्त ही हम ‘मैन एण्ड वाइफ’ बने थे।’’

‘‘देखो सिस्टर! यही बात अमृत ने बतायी थी, परन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या अमृत को हसबैण्ड बनाने की इच्छा आपकी कराची में नहीं हुई थी?’’

‘‘इच्छा तो वहाँ ही हुई थी। एक ही नजर में मेरे मन में कह दिया था कि यह एक इच्छित पति है। मैं इसी विचार से इनको यहाँ लायी थी।’’

‘‘मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि आपने इनको वहाँ ही वर लिया था। जहाँ तक आपका और अमृत का प्रश्न है, आपका विवाह तो वहाँ ही हो गया था। वास्तविक विवाह यही है। शेष तो गौण है।’’

सूसन अब चाय की चुस्कियाँ लगाती हुई विस्मय में कुलवन्त का मुख देख रही थी। वह मन में विचार कर रही थी कि कई-कई दिन तक उनमें सहवास नहीं होता। तो क्या उन दिनों वह अविवाहित होती है? इससे वह विचार करने लगी थी कि विवाह में कौन सी बात आवश्यक होती है? क्या सहवास आवश्यक है? कुलवन्त ने उसके मवोभावों को समझते हुए कहा, ‘‘देखो सिस्टर! विवाह तो आफका पाकिस्तान में हुआ था और यहाँ का एक हिन्दू पण्डित तुमको हिन्दू तरीके से विवाह का सर्टिफिकेट दे देगा। हमारे समाज में तो विवाह हो जाता है, परन्तु पति-पत्नी के परस्पर मिलने में कभी कई वर्ष भी लग जाते हैं। परन्तु विवाह तो मिलने से एक पृथक् बात है।

‘‘सर्टिफिकेट देश के कानून का पेट भरने के लिये है। विवाहित जीवन आप दोनों के चलाने की बात है।’’

अमृत हँस पड़ा। हँसकर बोला, ‘‘कुलवन्त! वह कह दो। क्या हम दोनों को उसके सम्मुख जाना पड़ेगा?’’

‘‘परन्तु एक बात है।’’ सूसन ने कहा, ‘‘क्या हम उस सर्टिफिकेट से हिन्दू हो जायेंगे?’’

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