उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘यह इस प्रकार नहीं। आप दोनों हिन्दू तो पहले होंगे। तब ही वह विवाह होगा, अन्यथा वह झूठी बात हो जायेगी।’’
‘‘पर मैं तो हिन्दू हूँ नहीं?’’
‘‘वह तो कदाचित् तुम पीछे भी नहीं रहोगी। परन्तु विवाह के समय तुम दोनों को हिन्दू समझ ही विवाह किया गया समझा जायेगा।’’ तो उसमें लिखा जायेगा कि हमने अपना मज़हब बदल दिया है।?’’
‘‘वहाँ कुछ नहीं लिखा जायेगा, परन्तु उस रीति से विवाह के अर्थ ही यह होगे कि आप हिन्दू हैं।’’
अमृत और कुलवन्त दोनों पैरिस के विद्वान् के पास गये और उससे कह कर संस्कृत में एक सर्टिफिकेट लिखवा लाये।
यह सर्टिफिकेट एक सुदृढ़ कागज पर लिखा गया था और साथ ही उसका एक फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद एक पैरिस के मैजिस्ट्रेट से ‘अटैसट’ करा लिया गया।
कुलवन्त तो पैरिस से ही भारत लौट आया और अमृत तथा सूसन में उस समय सुलह हो गयी थी।
भारत पहुँच कर उसने पहला पत्र अमृत को लियौन में तब लिखा जब वह महिमा और सुन्दरी से बातचीत कर चुका था। उसने पत्र हिन्दी में लिखा और उसमें औपचारिक कुशल-मंगल लिखकर यह सूचना दे दी–
‘‘मैंने तुम्हारी पूर्ण कथा तुम्हारी माताजी को तथा महिमा बहन को सुना दी है। इस कथा की प्रतिक्रिया यह है कि माताजी ने तुम्हें आशीर्वाद और अपनी शुभ कामना भेजी है और महिमा ने कहा है कि वह न तो नाराज़ है और ही प्रसन्न। उसे आपसे किसी प्रकार का गिला नहीं। वह एक पुत्र को तुमसे पाकर प्रसन्न है।
‘तुम्हारे और महिमा के लड़के का नाम सुशान्तकुमार रखा गया है। वह अब पाँच महीने का हो चुका है और ऐसा लगता है कि बड़ा होकर तुमसे कम शरारती नहीं होगा।’
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