उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
इस पत्र का उत्तर आया, ‘अमृत ने लिखा–‘मैंने तुम्हारा पत्र सूसन को पढ़कर और अनुवाद कर सुनाया है। वह पत्र सुनकर आपका धन्यवाद करती है। मेरा प्रणाम माताजी से कहना और महिमा को धन्यवाद कह देना।
‘मैं यत्न कर रहा हूँ कि सूसन के बच्चा होने के उपरान्त उसे अमेरिका ले जाकर रहूँ। मैं एयर फ्रांस का नौकर रह सकूँगा। उसके वाशिंगटन स्टेशन पर रहूँगा। मैंने अपने अधिकारियों को राज़ी कर लिया है, परन्तु सूसन अभी तैयार नहीं हुई। उसे अपनी नानी का घर अधिक पसन्द है।
‘बच्चा अभी चार महीने तक होने वाला है। तब तक तो यही पर हूँ।
‘भैया! मुझे तीन हजार फ्रैंक मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त जब पैरिस से बाहर जाता हूँ तो भत्ता भी मिलता है। मेरी इच्छा भारत आने की हो रही है, परन्तु कई कारणों से ऐसा नहीं कर सकता।
कभी विचार करता हूँ कि महिमा को पैरिस और इंगलैण्ड की सैर का निमन्त्रण भेज दूँ। परन्तु अपने वहाँ प्रकट हो जाने से भयभीत हूँ।’’
कुलवन्त युरोप से लौटा तो वायु-सेना का पुनर्गठन करने के लिये एक कमेटी एयर मार्शल की अध्यक्षता में नियुक्त हुई और कुलवन्त उस कमेटी में सदस्य बना लिया गया।
सैनिक क्षेत्रों में सेना को आधुनिक ढंग पर संगठिन करने तथा हमको आधुनिक यन्त्रों से सुसज्जित करने के लिये योजनायें बनने लगी थीं।
सैनिक अधिकारियों के मन में यह विश्वास था कि पिछला पाकिस्तान से युद्घ अनिर्णीत रहने के कारण पुनः एक युद्ध अवश्यम्भावी है। इस कारण उसको किसी निर्णय तक पहुँचाने के लिये विशेष प्रयत्न की आवश्यकता है। सैनिक मन राजनीतिज्ञों के मन में भिन्न प्रकार का होता है। उनके लिये शत्रु की सेना का विनाश शान्ति की विशेष शर्त होती हैं। यह सन् १९६५ में हो नहीं सका था
राजनीतिज्ञ तो यह समझते हैं कि बातें करने में चतुराई इतनी होनी चाहिये जिससे कि शत्रु के मन में यह अध्यास बनाया जा सके कि उसे अपने शत्रु से भय नहीं है। कभी भी इस अध्यास में सहायक होती है परन्तु न तो शत्रु का पूर्ण विनाश सम्भव है और न इससे कुछ लाभ होता है। अतः राजनीति और सैनिक नीति में अन्तर रहता है।
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