उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
सन् १९६२ की चीनियों से पराजय तथा सन् १९६५ के अनिर्णीत युद्ध के उपरान्त भारत के राजनीतिज्ञों ने सेना को तैयारी के लिये बहुत कुछ छूट दे रखी थी।
अतः युद्घ की तैयारी होने लगी। कुलवन्त युरोप से लौटने के उपरान्त और सैनिक पुनर्गठन की कमेटी का सैकेटरी बनने से उन्नति पा गया। इस पर भी उसका हेड क्वार्टर दिल्ली में ही था।
सेना के लिये नये-नये प्रकार के हवाई जहाज और उनमें लगने वाले यन्त्रों की खरीद के लिये वह रूस, अमेरिका और इंगलैण्ड की यात्रा पर रहता था।
इन्हीं भ्रमणों में वह लन्दन के हवाई पत्तन पर उतरा तो इसकी दृष्टि अमृत पर जा पड़ी। लगभग एक वर्ष हो चुका था उसे अमृत को पत्र लिखे हुए और उससे पत्र पाये हुए।
अमृत न्यूयार्क जा रहा था। उसका हवाई जहाज लन्दन हवाई पत्तन पर उतरा हुआ था और वह उसके ‘क्लीयरेंस’ मिलने की प्रतीक्षा कर रहा था कि एकाएक कुलवन्त ने उसके कन्धे पर हाथ रख उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अमृत घूमा और कुलवन्तसिंह को सामने खड़ा देख हाथ जोड़ नमस्कार करने लगा।
‘‘अमृत! यहाँ क्या कर रहे हो?’’ कुलवन्त ने पूछा।
‘‘हेलो, कुलवन्त अपने जहाज़ की ‘क्लीयरेंस’ मिलने की प्रतीक्षा में हूँ।’’
‘‘कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘पैरिस से आया हूँ और न्यूयार्क जा रहा हूँ।’’
‘‘लियौन नहीं?’’
‘अमृत कुछ परेशानी अनुभव करता हुआ कुलवन्त का मुख देखता रह गया।
‘‘क्या बात है?’’ कुलवन्त ने पूछ लिया।
|