उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
रावण को लंका का राज्य प्राप्त किये पच्चीस वर्ष के लगभग हो चुके थे और जो उपद्रव वह दक्षिण भारत में मचा रहा था, उससे वह देश उजड़ रहा था, यह चर्चा इन्द्र ने नारद मुनि से चलायी। उसे नारद मुनि का यह लांछन स्मरण था कि आर्यों की योग्यता का ज्ञान देवताओं को तब होगा जब वे देवलोक पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार जमा लेगे। इस उपालम्भ से पीड़ित हो इन्द्र ने इस दिन बातों का प्रवहन भारत पर बदल दिया। नारद ने कहा था कि वह भारत का भ्रमण करके आ रहा है तो इन्द्र ने पूछ लिया, ‘‘तो राम-रावण का युद्ध कब होगा?’’
‘‘रावण अब द्वन्द्व-युद्ध नहीं करेगा। वह स्त्रियों का अति प्रयोग करने से दुर्बल हो चुका है। बाली से पकड़े जाने के उपरान्त उसे साहस नहीं हो रहा कि वह किसी से भी द्वन्द्व-युद्ध करे। अतः राम-रावण का युद्ध तो होगा नहीं। हाँ, राम-सेना और रावण-सेना का एक दिन युद्घ हुए बिना नहीं रहेगा।’’
‘‘कैसे होगा यह युद्ध? दोनों एक-दूसरे से सात-आठ सौ कोस के अन्तर पर है।’’
‘‘उसके लिये मैं यत्न कर रहा हूँ। इस अर्थ में अयोध्या गया था। और वहाँ एक पाँसा फेंक आया हूँ।’’
‘‘मुनि जी! क्या पाँसा फेंक आये हैं?’’ इन्द्र ने उत्सुकता से पूछ लिया।
‘‘बताने का नहीं है। मैं ऐसा समझता हूँ कि उस चाल से राम राक्षस देश में पहुँच जायेगा और तब दोनों मुख्य पुरुषों का आमना-सामना हो जायेगा। यह वैसा ही होगा जैसे कि विष्णु भगवान् का युद्ध माल्यवान की सेना से हुआ था।’’
‘‘परन्तु विष्णु के पास तो गरुड़ या और सुदर्शन चक्र था। राम के पास ऐसे साधन हैं नहीं।’’
‘‘ये साधन आपके पास हैं। आप उसे राम को देंगे।’’
‘‘यह आपको किसने कहा है?’’
|