उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘एक बात और है। मेरी एक सखी ने मुझे यह समाचार आज से एक सप्ताह पूर्व ही सुनाया था, परन्तु मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। परन्तु आज प्रजा को सुनाया जाता देख आयी हूँ तो मन विषाद से भर गया है।’’
‘‘पर मंथरा, यह सब क्यों?’’
‘‘महारानी! इसके कुछ वर्ष उपरान्त की बात मैं देख रही हूँ। महारानी कौशल्या राजमाता होंगी और आप तथा महारानी सुमित्रा एक सामान्य प्रजा की-सी स्थिति में हो जायेंगी। जानती हैं कि आपकी स्थिति क्या होगी? केवल मात्र गुज़ारेदार की। गुज़ारेदार का अभिप्राय यह होता है कि निर्वाह के लिये मिलने वाली वृत्ति पाना।
‘‘महारानी सुमित्रा की स्थिति तो फिर भी आपसे अच्छी होगी। उनका लड़का लक्ष्मण राम के साथ घनिष्टता का सम्बन्ध रखता है। राम अवश्य लक्ष्मण को किसी अधिकार-युक्त कार्य पर लगा देगा, परन्तु भरत को बाल्यकाल से ही ननिहाल में रहते हैं। उनका राम से भी हेलमेल नहीं है। अतः उनकी और आपकी स्थिति बहुत ही हीन होने वाली है।’’
कैकेसी ने इस भावी धूमिल चित्र की कल्पना की तो उसका दिल भीतर-ही-भीतर बैठने लगा। इस निराशा की अवस्था में उसने कह दिया, ‘‘मंथरा! तुम कदाचित् ठीक कहती हो। परन्तु देखो न, इसका दोष तो मैं अपने भाग्य को ही दे सकती हूँ। यज्ञ में उपलब्ध दैवी पाक हम तीनों रानियों ने एक समय खाया था, परन्तु पुत्र कौशल्या के पहले हुआ। मुझे स्मरण है कि महाराज की सेवा में पहले मैं गयी थी, परन्तु गर्भ स्थिति कौशल्या के पहले हुई थी। भला इसके लिये मैं कैसे और किससे झगड़ा करूँ?’’
‘‘झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं रानी जी! अपनी अर्जित स्थिति से लाभ उठाना चाहिये। एक बार पश्चिम के असुरों के साथ हुए युद्ध में आपने महाराज की सेवा की थी। यह सेवा उसी युद्ध में दो बार सम्पन्न हुई थी। उस समय महाराज ने प्रसन्न हो आपको वर दिये थे। आपने वे वर सुरक्षित रखे हुए हैं। आज अवसर है उन वरों को माँगने का।’’
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