उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘परन्तु उसके उपरान्त तो युग बीत गया है।’’
‘‘महारानी! क्षत्रियों का वचन टलता नहीं। सूर्य और चाँद अपने स्थान से टल सकते हैं, परन्तु क्षत्रिय का वचन नहीं टलता। आप उन वरों को जीवित करिये और दो बातें माँगिये। एक यह कि राज्याभिषेक भरत का हो और दूसरा वह कि राम को देश निष्कासन की आज्ञा दे दी जाये।’’
‘‘यह क्यों?’’
‘‘इस कारण कि राम यहाँ राज्य में रहना हुआ लोकप्रिय हो रहा है। अतः भरत के राजा बन जाने पर भी वह राम की दया पर ही रहेगा। इस कारण कम-से-कम इतने काल के लिये जितने में आप समझती हैं कि भरत का राज्य सुदृढ़ हो सकता है, राम को बनवास दिलवा दीजिये।’’
‘‘कौन मानेगा इस बात को?’’
‘‘महारानी जी! आप सत्याग्रह कर दीजिये। खाना-पीना बन्द कर दीजिये। अपने को शोकाभिभूत प्रकट कीजिये। अपने अधिकारों के लिये कुछ कष्ट सहन करना ही तो तपस्या कहलाती है। तपस्या एक दैवी गुण है। आप यह करने में योग्य है।’’
इस प्रकार अयोध्या में दशरथ के राजप्रासाद में प्रथम ऐसा अवसर आते ही जिसमें एक पत्नी और दूसरी पत्नी में अन्तर होना था, फूट पड़ गयी। पत्नी और पति का भाव विलुप्त हो गया और एक परिवार में दो स्त्रियाँ प्रतिस्पर्धी के रूप में दृष्टिगत होने लगीं।
ज्यों ही मंथरा की वाक्रचातुरी का प्रभाव कैकेयी पर हुआ कि उसके प्रासाद में दिये बुझा दिये गए। रानी ने अपनी वेणी खोल दी, भूषण उतार दिये, सामान्य शोक समय के पहनने वाले वस्त्र पहन, भूमि पर लेट गयी।
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