उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘और यह अन्धकार भी मैंने कर रखा है?’’
‘‘हाँ, महाराज! अब आप आये हैं तो प्रकाश कर दीजिये।’’
दशरथ ने ताली बजायी। दासी आयी तो महाराज ने आज्ञा दी, ‘‘प्रकाश करो।’’
उस बड़े-से आगार में एक धीमा-सा प्रकाश कर दिया गया। महाराज रानी के समीप भूमि पर ही बैठ गये और पूछने लगे, ‘‘क्या कष्ट है देवी? मुझे तुरन्त सूचना क्यों नहीं भेजी?’’
‘‘आपके ढोल-नगाड़ों के तुमुल नाद में यहाँ की चीख-पुकार की सुनवायी कैसे हो सकती थी?’’
‘‘रानी! कुछ स्पष्ट बात करो। आज हम बहुत प्रसन्न हैं। आज माँगो जो मन में आये। वर माँगो, हम देंगे।’’
‘‘पहले दिये वर और वचन तो अभी पूरे हुए नहीं और अब के दिये वचन को क्या करूँगी?’’
‘‘कौन-से वचन पूरे नहीं किये?’’
अब कैकेयी उठकर भूमि पर बैठ गयी और माथे पर त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘‘तो अवस्था बड़ी हो जाने के साथ स्मृति भी क्षीण होने लगी है?’’
‘‘हाँ। यह बात तो है, परन्तु तुम तो बूढ़ी नहीं हुई। रानी, स्मरण करा दो तो हम उनको भी पूरा कर देंगे।’’
कैकेयी ने स्मरण कराया। उसने कहा, ‘‘एक बार पश्चिम देश में असुरों से युद्ध करते हुए आप असुरों से घिर गये थे और आपका रथ टूट गया था। तो आपको स्मरण है कि तब क्या हुआ था?’’
‘‘ओह! याद आ गया। उस युद्ध में दो बार तुमने हमारी जान बचायी थी और हमने दो वर दिये थे। अच्छा, पहले उन्हीं को माँगो। बताओ, हम क्या करें कि हमारी रानी इस कोप को छोड़कर हम पर प्रसन्न हो जाये?’’
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