उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘माँगूँगी। पर मैं जानती हूँ कि आप उस बात को पूरा नहीं करेंगे।’’
‘‘कैसे जानती हो कि हम अपना दिया वचन पालन नहीं करेंगे?
कभी पहले भी ऐसा हुआ?’’
कैकेयी ने आँखें मूँद कह दिया, ‘‘हाँ। पहले तो आपने कभी अपना वचन भंग नहीं किया, परन्तु अब मन कहता है कि आप वचन से बदल जायेंगे।’’
‘‘नहीं रानी। माँगो! रघुकुल की रीति है। प्राण जा सकते हैं, पर वचन नहीं। माँगो।’’
‘‘तो सुनिये, महाराज! मैं चाहती हूँ कि आप भरत को युवराज-पद पर आसीन करिये और राम को चौदह वर्ष तक वनवास की आज्ञा दीजिये।’’
दशरथ अब कैकेयी से युक्ति करने लगा। वह चाहता था कि वह कुछ और बात माँग ले, परन्तु कैकेयी नहीं मानी। जब बहुत समझाने-बुझाने पर भी रानी नहीं मानी तो दशरथ मौन हो गया। इस पर कैकेयी ने ताना देकर कह दिया, ‘‘बस, हो गयी बात पूरी? अब आप जाइये। और भविष्य में रघुकुल की रीति की ढींग मत हाँका करिये।’’
राजा मुख से न तो कह सका कि वह वचन पालन नहीं करेगा और साथ ही राम के विषय में बात इतनी दूर तक जा चुकी थी कि उसे बदलना सम्भव प्रतीत नहीं होता था।
कैकेयी को एक बात सूझी। उसने राम को बुला भेजा और उसके सम्मुख उसके पिता की विडम्बना का वर्णन कर दिया।
राम क्षत्रिय स्वभाव का युवक था। जिसके लिये जीवन और मरण खेल समान हो, उसके लिये राज्य जैसी वस्तु का त्याग बहुत ही सामान्य बात है। उसने कह दिया, ‘‘पिताजी! आप चिन्ता न करें। आपको दिया वचन पूरो होगा। मैं कल प्रातःकाल ही वन के लिये प्रस्थान कर दूँगा।’’
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