उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘हम एक आवश्यक ‘डिस्पैच’ तैयार कर रहे थे। उसे तैयार करने और पोस्ट करने में देर लग रही थी।’’
‘‘आइये! मैंने तीनों के लिये खाने का आर्डर दे रखा है।’’
‘‘तब तो ठीक है।’’ कुलवन्त ने वोपत की ओर अर्थ-भरी दृष्टि से देखा और मुस्करा दिया। वोपत ने उत्साहित हो कहा, ‘‘आपके जाने के उपरान्त हम आपके विषय में बाते करते थे। उस वृत्तान्त से मैं आपसे रुचि लेने लगा हूँ।’’
सूसन परेशानी में कुलवन्त का मुख देखने लगी। कुलवन्त समझ गया कि वह यह जानने की इच्छांकर रही है कि उसने अपने मित्र के विषय में बताया है अथवा नहीं?
कुलवन्त ने विचार किया कि उसे बता देना चाहिये कि उसने क्या और कहाँ तक बताया है। उसने कहा, ‘‘सूनन डीयर! मैंने केवल इतना ही परिचय दिया है कि आप अंग्रेज पिता से एक फ्रांसीसी माता की लड़की हैं और आपकी माँ लाखों की सम्पत्ति आपके लिये छोड़ गयी है।’’
‘‘शेष परिचय तो तुम स्वयं ही दे सकती हो।’’
इतता कहते-कहते ही कुलवन्त ने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘हमारा पैरिस में काम समाप्त हो गया है और यदि कल नहीं तो अगले दिन हम यहाँ से चल देंगे। हमारा काम कुछ दिन के लिये लन्दन में हैं।’’
‘‘तो आप अपने मित्र के बेबी को नहीं देखेंगे?’’
‘‘वह कहाँ है?’’
‘‘इस समय लियौन में है। एक नर्स उसकी देख-रेख कर रही है।’’
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