उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘यह सम्भव नहीं। इस पर भी मैंने आपको अपनी बहन माना है तो मैं उसके लिये पूर्ण यत्न करूँगा। परसों तो हम लन्दन जायेंगे। मैं वहाँ से ही किसी सरकारी काम को यहाँ के लिये निकालूँगा और अमृत से मिलकर कोई उपाय करूँगा।’’
‘‘पर मुझे कैसे पता चलेगा कि आपके प्रयत्न का क्या परिणाम निकला है?’’
‘‘मैं आपसे अमृत को अपने समक्ष मिलाने का यत्न करूँगा।
‘‘मैं आपकी जीवन-भर आभारी रहूँगी। मैं नहीं चाहती कि मेरे लड़के के भावी जीवन पर किसी दूसरी स्त्री की परछायीं पड़े।’’
‘‘परन्तु सूसन! यह मेरा साथी इतना विश्वस्त नहीं है जितना कि मैं सिद्ध हो चुका हूँ। यदि इसको पता लग गया कि आपका पति जीवित है, और सेना से भागा हुआ है तो एक मुसीबत खड़ी हो जायेगी।’’
‘‘मैं तो कुछ और समझी हूँ।’’
‘‘क्या समझी है?’’
‘‘यह महानुभाव मुझ पर कुदृष्टि रखते हैं।’’
कुलवन्त सूसन के इस कथन पर विस्मय में उसका मुख देखता रह गया। वह समझ नहीं सका कि सूसन कैसे उसके मन की बात जान गयी है।
इस कारण सूसन ने पूछ लिया, ‘‘आप मेरे मुख पर क्या देख रहे हैं?’’
‘‘आपको किसने उसकें ऐसे भावों को बताया है?’’
‘‘किसी ने नहीं। मैंने उसकी आँखों में शरारत देखी है।’’
‘‘मैं इस विषय में कुछ नहीं जानता। परन्तु यह जानते हुए भी तुमने उसको लियौन में चलने का निमन्त्रण किसलिये दिया है?’’
|