उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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कुलवन्त के तैयार होने तक तीनों स्त्रियाँ अतीत काल की बातें स्मरण करती रहीं। महिमा बता रही थी, ‘‘जिस दिन माता जी के पुत्र के निधन का समाचार पिताजी लाये थे, उस दिन बाबा के मुख से एकाएक निकल गया, कि यह लड़का मरते समय भी छलना कर रहा प्रतीत होता है। इस पर पिताजी ने अपनी जाँच का पूर्ण विवरण बता दिया। जाँच का वृत्तान्त सुन उन्होंने पूछा था, ‘‘कहीं धोखा तो नहीं खा गये?’’
‘‘पिताजी उसकी पाकेट बुक और वस्त्र देख आये थे। उनको देख कर यही समझ में आया था कि वह अब संसार में नहीं हैं। तदनन्तर बाबाजी का भी निधन हो गया।’’
गरिमा ने कहा, ‘‘बलवन्त के पिता के वृत्तान्त से तो यह पायलट आपका पुत्र ही समझ में आया है और मैं समझती हूँ कि यदि आपने तनिक सावधानी का प्रयोग किया तो वह आपके घर में दीपक का काम करेगा।’’
‘‘यह सावधानी तो महिमा के अधीन ही है।’’ सुन्दरी का कहना था।
महिमा अपने मन में विचार कर रही थी कि यह गृहस्थ का बन्धन पुनः चला आ रहा है। इसमें फँसकर उसका कल्याण होगा अथवा अकल्याण? उसका मन कहता था कि यह मुसीबत आने वाली है। इस समय वह ग्यारह सौ रुपया मासिल वेतन पाती थी और सब प्रकार की कटौतियाँ काट कर भी वह एक सहस्त्र रुपया घर ला रही थी। मकान के अपने हिस्से का किराया वह एक सौ पचासी रुपया देकर बहुत मजे में निर्वाह कर रही थी। उसे अब किसी प्रकार का अभाव दिखायी नहीं देता था।
पति के पुनः आने की सम्भावना पर वह किसी प्रकार का अज्ञात भय अनुभव करने लगी थी। वह विचार करती थी कि क्या अभाव है? उसे समझ नहीं आ रहा था।
उस समय उसके मन में वासनायें नहीं थीं। इनकी पूर्ति के लिये वह पति की इच्छा नहीं कर रही थी। तो फिर क्या है?
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