उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
जब सुन्दरी ने यह कहा कि उसके घर में प्रकाश करना महिमा के अधीन है तो महिमा ने कहा, ‘‘पर माताजी! आपके सुपुत्र एक नया विवाह भी तो कर सकते हैं।’’
‘‘यह पहली पत्नी के जीवन में कैसे कर सकेगा?’’
‘‘वह अपनी पहली पत्नी की मृत्यु घोषित कर सकता है। मैं तो यहाँ एक विधवा घोषित हूँ ही और वह अपने सरकारी कागजात में अविवाहित घोषित कर चुका है। मैं समझती हूँ कि ‘मोनोगेमी’ का कानून उसके नवीन विवाह में बाधक नहीं होगा।’’
‘‘अर्थात् अब अमृत की भाँति तुम भी छलना खेलने का विचार कर रही हो?’’
महिमा इस लांछन पर मौन हो गयी। इस समय कुलवन्त स्नान कर वस्त्र पहर बाहर आ गया। महिमा ने कहा, ‘‘चलिये, जीजाजी! अल्पाहार नीचे प्रतीक्षा कर रहा है।’’
‘‘तो गरिमा ने छुट्टी कर दी है?’’
‘‘माताजी ने अपना घर नीचे बना लिया है। महिमा उनकी पतोहू है। भला मैं उनके इस दावे को गलत करने वाली कौन हूँ?’’
कुलवन्त मुस्कराया और नीचे चलने को तैयार हो गया। सब उठे और नीचे की मंजिल पर पहुँच खाने के कमरे में जा बैठे। कुलवन्त ने बैठते ही सायंकाल का कार्यक्रम बता दिया, ‘‘मैंने अमृतलालजी को ठीक चार बजे यहाँ पहुँचने के लिये कहा है। मैं समझता हूँ कि वह समय से पूर्व ही यहाँ पहुँच जायेगा। कल जब मैं अपने निमन्त्रण को दोहरा रहा था तो वह भी आने के लिये उत्सुक प्रतीत होता था। मेरे इस घर के विवरण तथा गरिमा की विधवा बहन के विषय में बताने पर सब समझ गया होगा। मैंने अभी माताजी के यहाँ होने की बात उसे नहीं बतायी। इस पर भी वह समझ रहा होगा कि दीदी से सुलह का अभिप्राय माता-पिता से भी सुलह ही है।’’
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