उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
सुखिया ने अल्पाहार का सामान रख दिया। पूरी, हलुवा, साग, चटनी, अचार था। गरिमा की लड़की का अभी नामकरण संस्कार नहीं हुआ था। माता-पिता उसे नीटू के नाम से सम्बोधन किया करते थे। वह मेज पर बैठी थी और गरिमा उसे दूध पिला रही थी। बलवन्त तो अब कुर्सी पर बैठ खाना सीख गया था।
चुप्पी कुलवन्त को अखर रही थी। इस कारण उसने वार्त्तालाप का विषय बदल दिया। उसने कहा, ‘‘सत्य ही बाबा की काहनी अति रोचक है। मैं उसे पढ़ने लगा तो छोड़ नहीं सका। प्रथम खण्ड समाप्त करते-करते रात के ढाई बज गये थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कथा को उपन्यास का रूप दीदी ने दिया है।’’
महिमा ने कहा, ‘‘इसकी औपन्यासिकता का श्रेय गरिमा को है। हाँ, उसमें वर्णन-शैली मेरी है। कथा का भाव बाबा द्वारा बताया गया है। उदाहरण के रूप में बाबा ने बताया था कि अमृत-मन्थन की कथा एक अलंकार मात्र ही है। वैसे व्यक्तियों में जीवात्मा अमृत है और इन अमर जीवात्माओं के एक समूह को ही जाति कहते हैं। जाति का जीवन व्यक्तियों पर आधारित है। स्थायी विचारधारा, उस विचारधारा की आत्मा को जीवित रखते हुए बदलते जमाने में उसे अनुकूल स्वरूप देते रहना और फिर जनसंख्या को एक उचित संख्या से कम नहीं होने देना, यही अमृत-मन्थन है। जब जाति ऐसी हो जाती है तो फिर वह अमर हो जाती है। देवता एक भयंकर युद्ध में न केवल संख्या में कम हो गये थे, वरन् उनके प्रायः युवा पुरुष युद्ध में वीरगति प्राप्त कर गये थे। देवताओं की युवा स्त्रियों और कन्याओं का विजातीय लोग अपहरण कर रहे थे। साथ ही जाति में कुछ ऐसे रूढ़िवादी उत्पन्न हो गये थे जो जातीय ज्ञान-विज्ञान बपौती मान, उसे किसी दूसरे को देने को तत्पर नहीं होते थे। परिणामस्वरूप ज्ञान-विज्ञान से उन्नति अवरुद्ध हो गयी थी। इन सबके लिये द्वार खोलने को ही अमृत-मन्थन का नाम दिया गया है।१ (१. देखें, श्री गुरुदत्त का उपन्यास ‘अमृत मंथन’।)
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