उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘इस अमृत-मन्थन से एक नवीन जाति का प्रादुर्भाव हुआ। यह नाग जाति थी। इसको मानव-जाति का नाम दिया गया। यों तो देवता और दैत्य भी मनुष्य ही थे, परन्तु यह नई जाति ऐसे ही मानव कहलायी जैसे कि हिन्दू-समाज के अछूत हरिजन कहलाये।
‘‘इसमें और तत्कालीन मानव-समाज के निर्माण में अन्तर था। तब देव-कन्याओं का निम्न जाति के पुरुषों से विवाह कर उनकी सन्तान को देवताओं का आचार-विचार वाला बनाना था। आज हरिजनों की सन्तान ही हरिजन हुई है। उनमें नया रक्त संचार नहीं हो सका। अतः नाम से तो जाति नवीन बन रही है, परन्तु इनमें श्रेष्ठ गुण उत्पन्न नहीं हो रहे।
‘‘अमृत मन्थन में सन्तान उपलब्ध की गयी और उसका वातावरण बदल दिया गया। इसे कई सौ वर्ष लगे।
‘इस पर भी यह नयी जाति देवता के नाम से प्रसिद्घ नहीं हो सकी। प्रायः मानव अपने को देवताओं से श्रेष्ठ मानते थे। देवताओं में रूढ़िवादिता निःशेष नहीं हुई और कालान्तर में देवता समाप्त हो गये।’’
‘‘यह सब अति मनमोहक है।’’ कुलवन्त ने कह दिया, ‘‘मैं इसका अगला खण्ड भी पढ़ने के लिये उत्सुक हूँ। परन्तु मैं नित्य रात को इतनी देर गयी तक जाग नहीं सकता। अब थोड़ा-थोड़ा नित्य पढ़ा करूँगा।’’
इस प्रकार कुलवन्त और महिमा की बाबा की कथा पर विवेचना होते-होते अल्पाहार समाप्त हो गया।
कुलवन्त ने बता दिया, ‘‘मैं और गरिमा मध्याह्न का भोजन तो करनल बोपत के घर लेंगे। वहाँ से मैं तीन बजे से पूर्व घर लौट आऊँगा और पूर्व निश्चयानुसार अमृत ठीक चार बजे यहाँ आयेगा।’’
तीन बजे कुलवन्त, गरिमा और बच्चे आये तो चाय की तैयारी हो चुकी थी। महिमा ने सुखिया को कहकर चाय का प्रबन्ध गरिमा के फ्लैट में कराया था। उसका स्पष्ट कहना था कि वह इस चाय-पार्टी में सम्मिलित नहीं हो रही। कुलवन्त के पूछने पर उसने कहा, ‘‘पहले माताजी को अपने पुत्र से समझ-समझा लेना चाहिए। तब मैं विचार करूँगी कि मैं माताजी की लड़की बनी रहूँ अथवा पुनः पतोहू बन जाऊँ?’’
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