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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


सुन्दरी का भी कहना था, ‘‘मैं समझती हूँ कि महिमा का विचार ठीक है। महिमा ने अमृत को छोड़ा नहीं था। यह तो अमृत था जो उसे छोड़ किसी अन्य लड़की के पीछे भाग खड़ा हुआ था।

‘‘जहाँ तक मैं जानती हूँ, महिमा ने पत्नी का कर्तव्य पालन करने से भी इन्कार नहीं किया था, परन्तु वह तो व्यभिचार होने के पथ पर चल रहा था। महिमा ने उसके व्यभिचार का शिकार होने से इन्कार ही किया था। इस कारण मैं समझती हूँ कि यदि यह मेरा अमृत ही है तो उसे ही अपने विकृत व्यवहार की सफाई और सुधार का यत्न करना चाहिये।’’

‘‘मैं समझता हूँ कि कुछ यत्न दीदीजी की ओर से भी किया जाता तो अच्छा था। दोनों में वैमनस्य तो है और इसको मिटाना दोनों के हित में है। मैं समझता हूँ कि दीदी का हित अधिक होने वाला है।’’

महिमा चुप बैठी थी। इस पर भी उसके मुख की दृढ़ मुद्रा देख यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वह अपने संकल्प पर दृढ़ है। सुन्दरी ने कहा, ‘‘नहीं बेटा कुलवन्त! यह पुरुष का ही अधिकार है कि वह लड़की का हाथ पकड़े! लड़कियाँ अपना हाथ निकाल कर पुरुषों को पकड़ने का निमन्त्रण नहीं देती।’’

‘‘परन्तु माताजी! आजकल तो यही कुछ हो रहा है।’’

‘‘ठीक है। मैं आज के इस प्रवहन को पसन्द नहीं करती। क्यों महिमा, तुम क्या कहती हो?’’

‘‘माताजी, मैंने अपना मत बता दिया है। मेरी कामना है कि माता को पुत्र मिल जाये और फिर वह माताजी के घर को पुत्र-पौत्रों से भरपूर कर दे। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं अभी तक अनिश्चित मन हूँ कि माताजी के घर में यह सौभाग्य लाने में मैं क्या और कितना सहयोग दूँ।’’

सुन्दरी ने कह दिया, ‘‘चलो, गरिमा! ऊपर चलकर देखें कि सुखिया ने क्या प्रबन्ध किया है।’’

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