उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘तुम कुछ नहीं जानते। इस देश की स्त्रियों में पचहत्तर प्रतिशत ऐसी हैं जो साधारण से प्रलोभन के लिये जीवन का सुख लुटाने के लिये तैयार हो जाती है।’’
‘‘देख लो। कहीं एक हिन्दूस्तानी सैनिक अफसर का अपमान न हो जाये।’’
‘‘तुम चिन्ता न करो।’’
कुलवन्त विचार कर रहा था कि क्या यह इन्द्र और अहल्या के नाटक की पुनरावृत्ति नहीं हो रही?
इन्द्र तो एक ऋषि की भोली-भाली स्त्री को फुसला सका था। परन्तु वोपत तो इन्द्र प्रतीत नहीं हुआ था। हाँ, सूसन अहल्या लग रही थी। सूसन का अमृत को सड़क पर चलते-चलते पकड़ने की बात स्मरण कर वह शंका कर रहा था कि वह वोपत के जाल में फँस जायेगी।
दोनों मित्र सो गये। कारण यह कि प्रातः लियौन के लिये ‘प्लेन’ पकड़ना था। तीनों सात बजे प्रातः ‘प्लेन’ पकड़ आठ बजे लियौन पहुँच गये और दिन-भर वहाँ रहे। कुलवन्त ने अमृत के लड़के को देखा। वह बहुत सीमा तक अमृत से मिलता था। अमृत का महिमा से लड़का इतना गौरवर्णीय नहीं था।
मध्याह्न के भोजन के उपरान्त कुलवन्त ने कह दिया कि वह अपने एक फ्रांसीसी मित्र से मिलने जा रहा है।
सूसन उसके साथ नहीं गयी और वोपन भी वही रहा। जब कुलवन्त जाने लगा तो वोपत ने उसकी ओर अर्थ-भरी दृष्टि से देखा। कुलवन्त को यह समझ आया कि वोपत मन-ही-मन उसका धन्यवाद कर रहा है।
कुलवन्त कह गया कि वह ठीक पाँच बजे आयेगा और चाय लेते ही वे हवाई पत्तन के लिये चल देगे। हवाई जहाज साढ़े-छः बजे छूटता था।
जब वह अपने मित्र से मिलकर लौटा तो सूसन और मिस्टर वोपत उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुलवन्त बाबा तो चाय पर बैठ गया। वह वोपत के मुख पर निराशा के लक्षण ढूँढ रहा था। वोपत न तो प्रसन्न था और न ही निराश प्रतीत होता था। सूसन की किसी प्रकार से हर्ष-शोक के लक्षण प्रकट नहीं कर रही थी।
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