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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास

8

दशरथ मन में तो चाहता था कि राम वन को न जाये, परन्तु इस बात को वह अपने मुख से नहीं कह सका। वह चाहता था कि कोई दूसरा कैकेयी को समझाये। वशिष्ठजी ने तथा कुछ मन्त्रियों ने राम को समझाने का यत्न किया कि वह पिता के इस अधर्मयुक्त वचन का पालन करने से इन्कार कर दें।

युक्ति देने वालों में सबसे प्रबल युक्ति लक्ष्मण की थी। लक्ष्मण का कहना था कि यदि गुरु भी कोई अयुक्तियुक्त बात कहे तो उसकी अवज्ञा करना पाप नहीं होता।

परन्तु राम ने उसे कह दिया कि अयुक्ति-संगत बात हम मान नहीं रहे। हम अभी राजा नहीं है। हम तो पिता के आज्ञाकारी पुत्र मात्र है।

इसी प्रकार सुमन्त ने राम को समझाया। राम को उसे उत्तर सर्वथा स्पष्ट था कि मेरे लिये राज्य-पद और वनवास एक समान है। जब मैं इन दोनों में अन्तर नहीं मानता तो क्यों एक के लिये पिता के वचन को असत्य सिद्ध करूँ?

परन्तु जब राम अयोध्यापुरी से वनवासियो के वस्त्र पहने हुए निकलने लगा तो पुरवासियों ने मार्ग रोक लिया और इस घोर अनर्थकारी कार्य के लिये हाहाकार करते हुए आग्रह करने लगे कि राम वन को न जाये।

राम की युक्ति सरल थी। उसने कहा था, ‘‘तुम प्रजा हो। तुमको धर्म का पालन करते हुए राज्य में रहना चाहिये। राजा मैं हूँ अथवा भरत है, इसमें क्या अन्तर पड़ जाता है? हाँ, यदि भरत अधर्माचरण करने वाला सिद्ध हो तो वे उसको राज्यच्युत कर सकते हैं।’’

पुरवासियों के लिये तो यह युक्ति का विषय नहीं था। वह तो राम से प्रेम-वश कह रहे थे कि वह अयोध्या में ही रहें, परन्तु जब राम नहीं माना तो वे सब प्रेम-वश ही राम के साथ-साथ चल पड़े।

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