उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘जब किसी पुरुष को सन्तान प्राप्त करने के लिये दूसरा विवाह करना पड़े तो दूसरी पत्नी और उसके माता-पिता के मन में अपनी लड़की के मुख्य पत्नी बनने की आशा रहती है। इसी का प्राकट्य हुआ प्रतीत होता है।
‘‘अतः मेरा विचार है।’’ विष्णुशरण ने बताया, ‘‘दशरथ और कैकेयी के व्यवहार को सभान मनुष्यों का-सा व्यवहार समझना चाहिये।
‘‘परन्तु राम, सीता और लक्ष्मण का व्यवहार महान् जीवनोद्देश्यों से सम्बन्ध रखता है। पिता ने किसी को एक वचन दिया था और वह बिना राम के वन गये पालन नहीं हो सकता था। इस कारण राम ने पितृ-ऋण उतारने के लिये वन जाना स्वीकार किया।
‘‘सीता का पत्नी होने के नाते राम का साथ देना उचित ही था उसने पति के साथ रहना स्वीकार किया। यह भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अनुरूप ही है। इसमें विशेषता यह है कि वनवास उसके पति को मिला था। उसके लिये वन जाने की बात नहीं थी। वह यदि गयी थी तो पति के प्रति अपना कर्तव्य पालन करने के लिये ही गई थी।
‘‘सीता ने राम को यह नहीं कहा कि वह अपने पिता का वचन पालन न करे। यह कहना उसके अधिकार के बाहर की बात था। उसका अपना राम के साथ जाना अथवा न जाना ही उसके विचार का विषय था। उसने उसी का निश्चय राम के साथ जाने के पक्ष में किया था। इसमें उसे अपार कष्ट भी हुआ, परन्तु उसने चौदह वर्ष के वनवास के दिनों में और उसके पीछे भी कभी मुख से नहीं निकाला। यही सीता की अपने कर्तव्य पालन करने की महिमा थी जिससे उसका नाम अमर हो चुका है।
‘‘लक्ष्मण की समस्या भिन्न थी। वह राम से प्रेम करता था और वन में राम को होने वाले कष्ट में भागीदार बनने के लिये चल पड़ा। लक्ष्मण की पत्नी ने पति के साथ जाना स्वीकार नहीं किया। यह अन्तर तो उर्मिला और सीता के भावों को प्रकट करता है और यही कारण है कि उर्मिला का नाम केवल इतिहास पढ़ने वालों को ही ज्ञात है। उसका राम की कथा में कोई स्थान नहीं।
‘‘वास्तव में कैकेयी को समझाने और उस पर दवाब डालकर राम के प्रति उसके भय का निवारण करने का उचित यत्न नहीं किया गया।
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