उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘और शेष संसार की सब स्त्रियाँ विवाही जा चुकी हैं क्या?’’
‘‘विवाही तो नहीं जा चुकीं, परन्तु अब विवाह करने में वह सुगमता नहीं हो सकती जो पहले थी। मैं तो समझता हूँ कि अब वह समय आ रहा है जिसमें स्त्रियाँ तुमसे ऊबने लगी है।’’
‘‘देखो कुलवन्त! अब मैं सोना चाहता हूँ। कल प्रातःकाल विचार कर लेंगे कि क्या करना चाहिये?’’
कुलवन्त ने भी यही ठीक समझा। वह गुसलखाने में रात सोने योग्य वस्त्र पहनने चला गया।
अमृत के पास उन वस्त्रों के अतिरिक्त जो उसने पहने हुए थे, दूसरे वस्त्र नहीं थे। इस कारण वह कोट, पतलून उतार ‘अण्डर वेयर’ के साथ ही बिस्तर में घुस सो गया। कुलवन्त विस्मय कर रहा था कि इस प्रकार अपमानित हो वह किस प्रकार गहरी नींद सो सकता है?
अगले दिन कुलवन्त सोकर उठा तो अमृत स्नान इत्यादि कर वस्त्र पहन चुका था।
‘‘ओह! कब के जागे हुए तो अमृत?’’ कुलवन्त ने पूछ लिया।
‘‘प्रातः चार बजे ही आँख खुल गयी थी।’’
‘‘और इतने समय से क्या कर रहे थे?’’
‘‘मैं लुईसी के चले जाने पर कुछ हल्ला-हल्ला अनुभव करता था। इस कारण लेटते ही सो गया। परिणाम-स्वरूप प्रातः चार बजे ही जाग पड़ा था। स्नानादि से निवृत्त हो मैं विचार करने बैठ गया था कि अब मुझे क्या करना चाहिये? मैंने यह विचार किया है कि सूसन से अपने व्यवहार की क्षमा माँग उसके साथ रहना आरम्भ कर दूँ।’’
‘‘और महिमा के पास क्यों नहीं? उसका दावा सूसन से अधिक है।’’
‘‘परन्तु मैं भारत में जा नहीं सकता। जाना भी नहीं चाहता। यह बहुत अच्छी नौकरी मिली हुई है। वहाँ पुरानी नौकरी पाने में भी कठिनाई है।’’
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