उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘मैं क्या करूँ? कल मैं यहाँ किसी से भी सम्पर्क नहीं बना सका था। आज रविवार है। कल तक यहाँ कम्पनियों से बातचीत की जा सकेगी।’’
वोपत का कहना था, ‘‘मैंने पैरिस के काम के विषय में भी पूछा है। मेरा विचार है कि तुम्हारे विषय में भी आदेश आयेगा।’’
‘‘तो सायंकाल तक बताना। मैं आठ बजे यहाँ अपने कमरे में रहूँगा।’’
तदन्तर दोनों मित्र नीचे रिसैप्सन हाल में चले गये। वहाँ होटल के सार्वजनिक टेलीफोन से कुलवन्त ने सूसन का नम्बर घूमाया और उसके मिलने पर कुलवन्त ने अपना नाम बता कहा, ‘‘तुरन्त यहाँ चली आओ।’’
‘‘क्या बात है?’’ सूसन ने पूछा।
‘‘अमृत मेरे कमरे में आ गया है। वह मेरे सामने तुमसे कुछ बात करना चाहता है।’’
‘‘अब मैं सायंकाल के हवाई जहाज से ही आ सकूँगी।’’
‘‘ठीक है। मैं होटल में तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।’’
कुलवन्त ने टेलीफोन का बिल नकद दे दिया और अमृत के साथ उसके घर उसका सामान लेने चला गया। वहाँ एक बूढ़ी स्त्री मिली। उसने आने वालों का नाम-धाम पूछा और सिटिंग-रूम में ले जाकर एक कोने में रखा अमृत का सूटकेस और ब्रीफ केस दिखा दिया।
अमृत ने पूछा, ‘‘और बस?’’
‘‘लुईसी यही दे गयी है। शेष सामान को बैड-रूम में रख ताला लगा गयी है।’’
|