उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
विवश अमृत ने दोनों नग उठाये और फ्लैट से बाहर चला आया। दोनों मकान से नीचे उतर आये और टैक्सी पर होटल इण्टर कौन्टिनेण्टल में जा पहुँचे।
वहाँ जा दोनों, सूटकेस और ब्रीफ केस को खोलकर देखा गया तो अमृत ने कहा, ‘‘परमात्मा को धन्यवाद है कि मेरे पहनने के कपड़े और कार्यालय के कागज ठीक हैं, परन्तु मैंने पिछले नौ महीने में कम-से-कम पाँच हजार फ्रेंक का और सामान मकान में रखा था। वह सब उसने अपने अधिकार में कर लिया है।’’
‘‘अमृत! परमात्मा का धन्यवाद करो कि उसने तुम पर से अपना अधिकार उठा लिया है।’’
‘‘ठीक है। फिर भी सूसन से तो अच्छा ही किया है। उसने तो मेरे वस्त्र भी वहाँ से लाने नहीं दिये थे। केवल बाँह पकड़ कर घर से निकाल दिया था।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि सूसन ने यह इसी कारण किया होगा कि वह तुम्हें पुनः घर लाने का यत्न चाहती होगी।’’
अमृत मुख देखता रह गया। दोनों ने होटल में प्रातः का अल्पाहार लिया और फिर घूमने चले गये। कुलवन्त अमृत के साथ ‘ट्यूलरीज’ देखने चला गया। वहाँ एक बहुत बड़ा अजायबघर था।
सायं साढ़े-सात बजे से पहले अमृत और कुलवन्त अपने कमरे में आ गये। कुलवन्त लन्दन से टेलीफोन की आशा कर रहा था। साथ ही आठ बजे तक सूसन के आने का समाचार था।
कुलवन्त ने एक डबल-सीटर कमरा पृथक, सूसन और अमृत के लिये सुरक्षित कर लिया। वह समझता था कि दोनों के रात इकट्ठे रहने से सुलह पक्की हो जायेगी।
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