उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
सूसन से भेंट कुलवन्त के कमरे में ही हुई। दोनों मित्र होटल के रिसैप्शन हाल में सूसन से मिले और कुलवन्त के कमरे में आ गये। आठ बजने वाले थे और कुलवन्त लन्दन से टेलीफोन की प्रतीक्षा में था।
तीनों कमरे में पहुँचे। सूसन अपने बेबी को भी साथ लायी थी। अमृत ने बेबी को अपनी गोद में ले लिया और उससे बातें करने लगा।
बेबी इस समय दो वर्ष का था। वह अपने पिता को पहचानता नहीं था। अमृत को लियौन से आये एक वर्ष से ऊपर हो चुका था। अमृत ने जब बच्चे में किसी प्रकार की रुचि उत्पन्न नहीं की तो कह दिया, ‘‘यह तो बुद्धू है। अपने बाप को भी नहीं पहचानता।’’
इस पर कुलवन्त ने पूछ लिया, ‘‘और तुम इसे यदि किसी अन्य की गोद में देखते तो पहचान जाते?’’
‘‘हाँ। यह मेरी प्रतिलिपि ही तो है।’’
‘‘अर्थात् तुम भी बुद्घू ही।’’
‘‘इस पर अमृत और सूसन हँसने लगे। इसी समय द्वार के बाहर की घण्टी बजी। इन्होंने द्वार भीतर से बन्द कर रखा था। कुलवन्त ने द्वार के पास जाकर आवाज़ दी, ‘‘कौन है?’’
कुलवन्त का विचार था कि होटल का बेटर हो सकता है। परन्तु बाहर से आवाज आयी, ‘‘वोपत।’’
कुलवन्त का मुख विवर्ण हो गया। उसने अमृत की ओर देखा और भाग कर उसके समीप आ कहा, ‘‘वोपत है।’’
अमृत ने तुरन्त अपना सूटकेस और ब्रीफ केस उठाया और गुसलखाने में चला गया। भीतर जाते ही उसने बाथ-रूम का द्वार भीतर से बन्द कर लिया। कुलवन्त ने समझा कि वह उसमें छुप गया है। इससे कुछ आश्वस्त हो उसने कमरे का द्वार खोल दिया।
वोपत भीतर आया तो सूसन और उसके बेबी को वहाँ बैठे देख खिलखिलाकर हँस पड़ा।
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