उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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वोपत ने अपना सूटकेस एक कोने में रखते हुए कहा, ‘‘कुलवन्त! मेरे लिये पृथक् कमरे का प्रबन्ध कर दो।’’
‘‘मैंने सूसन के लिये पृथक् कमरे का प्रबन्ध कर रखा है।’’
‘‘पर यहाँ एक बैड तो खाली था ही।’’
‘‘इस पर भी इसके लिये रूम नम्बर दो-चार-पाँच है।’’
‘‘पर तुम दोनों यहाँ कमरा भीतर से बन्द कर क्या कर रहे थे?’’
‘‘एक गुप्त षड्यन्त्र इसके पति के विरुद्ध कर रहे थे।’’
यह कहते-कहते कुलवन्त हँस पड़ा। कुलवन्त ने सूसन को कहा, ‘‘अच्छा, सिस्टर! तुम अपने कमरे में चलो। शेष बात वहाँ आकर ही करूँगा।’’
‘‘तो मेरे सामने वह बात नहीं हो सकती?’’ वोपत ने पूछ लिया।
‘‘तो फिर गुप्त कैसे रहेगी?’’ कुलवन्त ने मु्सकराते हुए कहा।
सूसन ने भी यही उचित समझा और वह वहाँ से उठी और एक हाथ में सूटकेस पकड़े हुए तथा दूसरे हाथ में बेबी को अँगुली से लगाये हुए कमरे से निकल गयी।
वोपत ने कहा, ‘‘कुलवन्त डीयर! मुझे शोक है कि मैंने तुम्हारे काम में विघ्न डाल दिया है।’’
कुलवन्त ने बात को बदलते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ है कि एकाएक आ गये हो?’’
‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि सुरक्षा मन्त्री और हमारे ‘हाई कमाण्ड’ में मतभेद चल रहा है। दोनों में समझौता यह हुआ प्रतीत होता होता है कि दोनों स्थानों पर बिक्री की जाए। मुझे यह टेलीफोन से सन्देश मिला है कि मैं पैरिस पहुँच कर यहाँ के दूत के साथ मिलकर पच्चीस ‘मिराज’ जहाजों का क्रय कर लूँ। इसी कारण तुमको टेलीफोन करने का विचार छोड़ स्वयं ही चला आया हूँ।’’
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