उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘अब तो खाने का समय हो गया है। खाने के लिये नीचे चलना चाहिये।’’
‘‘ठीक है। मैं तनिक बाथ-रूम में हो लूँ।’’
वोपत उठा और बाथ-रूम की ओर चला। कुलवन्त विचार कर रहा था अब अमृत का रहस्य खुल जायेगा। वह जानता था कि बाथ-रूम में सफाई करने वाले के लिये पृथक बाहर से द्वार है। परन्तु वह नहीं जानता था कि अमृत उस द्वार से चला गया है अथवा नहीं? इस कारण वह साँस रोक वोपत को बाथ-रूम के द्वार को धकेल कर खोलने का यत्न करते देखता रहा।
कुलवन्त ने घूम कर पूछ लिया, ‘‘क्या है?’’
‘‘भीतर कौन है?’’
‘‘तो यह भीतर से बन्द है।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘स्वीपर बन्द कर गया प्रतीत होता है। मैं अभी खुलवा देता हूँ।’’
कुलवन्त कमरे से निकल कमरों के पीछे ‘कारोडोर’ में जाकर अपने कमरे के बाथ-रूम के द्वार पर जा पहुँचा। द्वार खुला था और अमृत भीतर नहीं था। कुलवन्त समझा कि वह रूम नम्बर दो-चार-पाँच में चला गया होगा। इस विचार से सुख अनुभव करता हुआ वह बाथ-रूम में गया। उसने पिछला द्वार बन्द किया और कमरे में खुलने वाला द्वार खोल दिया।
‘मैं तो समझा था।’’ वोपत ने कहा, ‘‘तुमने सूसन से बात करने वाले को बाथ-रूम में बन्द कर रखा है।’’
‘‘नहीं भाई! यह तो स्वीपर ही बन्द कर गया प्रतीत होता है।’’
वोपत आया तो दोनों डायनिंग हाल में जा बैठे। वोपत ने पूछा, ‘‘आपकी सिस्टर नहीं आयी?’’
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