उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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लगभग ऐसी ही प्रसन्नता की अवस्था विष्णुशरण की कथा में उपस्थित थी। भरत अपने मन्त्रियों, माताओं और सैनिकों के साथ भारद्वाज आश्रम में पहुँचा तो मुनि ने पूछा, ‘‘भरत, कैसे आये हो?’’
‘‘मुनिवर! पितृ तुल्य भाई राम को वापस ले जाने के लिये।’’
‘‘और सेना साथ लेकर?’’
‘‘भगवन्! राम की अयोध्या-वापसी को धूम-धाम से करने के लिये सेना लाया हूँ। राम को वचन से मुक्त करने के लिये मैं अपनी माताजी को साथ लाया हूँ। मन्त्रियों को साथ इसलिये लेकर आया हूँ कि ये युक्ति से और धर्म-व्यवस्था से भैया को समझा सकें कि उनको अयोध्या चलना चाहिए।
‘‘अपने कथन को बल युक्त बनाने के लिये अयोध्या के मुख्य-मुख्य पुरवासियों को भी साथ लाया हूँ।’’
भारद्वाज के मन में विश्वास बैठ गया कि राम लौट जायेगा। इसी प्रसन्नता में मुनिजी ने भरत को उसके सब साथियों सहित आश्रम की ओर से आतिथ्य उपस्थित कर दिया।
भरत, राज-परिवार, मन्त्री-गणों तथा पुरवासियों और सेना के खाने-पीने तथा मनोरंजन का सर्वोत्तम प्रबन्ध वहीं आश्रम में कर दिया गया। इससे सहस्त्रों जन जो भरत के साथ थे, अति आनन्दित थे।
इस पर पण्डित भृगुदत्त ने प्रश्न कर दिया, ‘‘बाबा! आप यह कथा महर्षि बाल्मीकि की रामायण में से कर रहे हैं अथवा तुलसीजी के रामचरित मानस से?’’
‘‘किसी से भी नहीं। मेरी यह कथा अनेकों ग्रन्थों से संकलित है। इसका कथानक भी मेरा अपना ही है।’’
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