उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘भरत! हम बहुत प्रसन्न हैं कि तुम अत्यन्त धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो। जहाँ राम के त्याग-तपस्या और पितृ-ऋण की बात सुन चित्त अति प्रसन्न हुआ था, वहाँ तुम्हारा धर्म के तत्व-युक्त व्यवहार से चित्त पहले से भी अधिक प्रफुल्लित हुआ है। इसी प्रसन्नता के अनुरूप ही हमारे आश्रमवासियों ने ये कुछ श्रद्धा के फूल तुम्हारे चरणों में रखे हैं।
‘‘हमारा आशीर्वाद है कि तुम्हारी कामना पूर्ण हो।’’
भरत ने मुनिजी से पूछा, ‘‘जहाँ से आर्य राम किस ओर गये हैं?’’
मुनिजी ने बताया, ‘‘आजकल राम चित्रकूट पर्वत पर रह रहे हैं। जाओ, और उसे वापस अयोध्या में ले जाकर राज्यासीन करो। तुम्हारा कल्याण हो।’’
भरत भारद्वाज मुनि का आशीर्वाद ले चित्रकूट को चल पड़ा। यमुना पार कर चित्रकूट पर्वत के चरणों में पहुँचे तो विशाल सेना तथा रथों, घोड़ों इत्यादि के चलने से उड़ती हुई धूल से लक्ष्मण के मन में शंका होने लगी कि कदाचित् भरत उनकी हत्या करने के लिये वहाँ दल-बल सहित आया है। वह एक वृक्ष पर चढ़कर सेना के आगे-आगे सूर्यवंशियों का ध्वज फहराया जाता पहचान राम से अपनी आशंका प्रकट करने लगा।
राम ने पूछा, ‘‘लक्ष्मण! तुम यह बुरी शंका किसलिये मन में ले आये हो?’’
‘‘भैया!’’ लक्ष्मण ने कहा, ‘‘यह राजनीति है। संसार में सब आप जैसे धर्म का मर्म जानने वाले नहीं। इससे बदल रहे काल की गति देख मन में यह शंका उत्पन्न हुई है।’’
‘‘देखो लक्ष्मण! मैं तो इसमें कोई चिन्ता की बात नहीं देखता। यदि भरत हमें मिलने के लिये आया है तो यह उचित ही है। यदि वह हमें वापस ले चलने के लिये आया है तो भी अब मैं उससे राज्य नहीं लूँगा। इसमें भी किसी प्रकार की चिन्ता की बात नहीं।
‘‘और यदि तुम्हारी आशंका सत्य है कि वह मन में द्वेष-भाव लेकर आया है तब भी मुझे चिन्ता की बात प्रतीत नही होती। कारण यह कि मैं अयोध्यावासियों की हत्या करना नहीं चाहता। मैं इन्हीं पुरवासियों का स्नेह और आदर पा चुका हूँ। इससे इन पर बाण चलाते समय मेरी बाहें निस्तेज और बलहीन हो जायेंगी। भरत का अनिष्ट मैं कर नहीं सकता। वह पिताजी का उतना ही प्रिय पुत्र रहा है जितना मैं रहा हूँ।
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