उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘भरत! पिताजी अयोध्या का राज्य तुम्हें दे गये हैं। इस कारण वह तुम्हें सुशोभित करना चाहिये। वह सिंहासन यदि अभी तक सूना पड़ा है तो भूल तुम कर रहे हो।’’
‘‘परन्तु भैया! अधिकारी तुम हो?’’
‘‘राज्याधिकार कैसे प्राप्त होता है? इसके तीन ही उपाय हैं। राजा का पुत्र होने से, राजा द्वारा अभिषिक्त करने से। दूसरे, राज्य के विद्वानों द्वारा निर्वाचित करने से; तीसरे, समर मे जीतने से।
‘‘तीसरा उपाय तो है नहीं। हो सकता नहीं। अयोध्या नगरी महाराज इक्ष्वाकु के काल से आज तक अजेय रही है। दूसरा उपाय भी इस वर्त्तमान परिस्थिति में नहीं चल सकता। महाराज की मृत्यु से पूर्व की इच्छा कौन अयोध्या का विद्वान् अस्वीकार करेगा? परन्तु पहली बात तो मूल है। महाराज ने माता कैकेयी के पुत्र भरत को अयोध्या का राज्य सौंपा है।
‘‘भरत! तुम अयोध्या का राज्य करो। यही पिताजी की इच्छा है। पिताजी तुमको राज्य के अयोग्य नहीं मानते थे। मेरा अयोध्या के विद्वानों से आग्रह हैं कि स्वर्गीय महाराज की इच्छा की पूर्ति करें। जब तक तुम में वे कोई दोष देखते, उनको स्वर्गीय महाराज की बात माननी चाहिये। यही धर्म-व्यवस्था है।
‘‘मैं पिताजी की आज्ञा को परमात्मा की आज्ञा के तुल्य मानता हूँ। इस कारण तुम जाओ और राज-सिंहासन को सुशोभित करो।’
राम के युक्तियुक्त एवं धर्मानुसार वचन सुन सब निरुत्तर हो गये।
इस पर वशिष्ठ मुनि बोले, ‘‘यह अयोध्या में चलकर विचार कर लेंगे।
राम! तुम अब वापस चलो। माता कैकेयी जो महाराज से तुम्हारे वन जाने की बात कह रही थीं अब वह पश्चात्ताप करती हुई तुम्हें वापस ले जाने के लिये कह रही हैं। अब तुम पर अयोध्या लौटने का प्रतिबन्ध नहीं।’’
|