उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘पर मुनि श्रेष्ठ! वह प्रतिबन्ध माताजी ने लगाया था क्या? मैं ऐसा नहीं समझता! माताजी ने मुझे यहाँ वन में आने की आज्ञा नहीं दी थी। आज्ञा तो पिताजी की थी। वह मुख से नहीं कहते थे। उनका मान प्रेम-वश था, परन्तु वह वनचबद्ध थे। उनकी इस वचन-बद्धता से उनको मुक्त करने से ही मै यहाँ चला आया हूँ।’’
‘‘माताजी ने यदि कुछ वापस लेना है तो पिताजी से लेना है। मुझे उन्होंने न तो वन जाने की आज्ञा दी थी और न ही मैं उनकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ। पिताजी के देहान्त के उपरान्त में उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूँगा तो जन्म-जन्मान्तर तक पाप का भागी बना रहूँगा।
‘‘अतः गुरुवर! मुझे क्षमा करें। मैं चौदह वर्ष व्यतीत हो जाने के पूर्व वापस नहीं जा सकता।’’
इस कथन ने बात समाप्त कर दी। सब एक-दूसरे का मुख देखते रह गये। भरत ने एक योजना विचार की। वह आगे आ राम के खड़ाऊँ को माँगने लगा। उसने कहा, ‘‘भैया! ये पादुका मुझे दे दो।’’
‘‘इनको किसलिये माँग रहे हो?’’
‘‘जब तक आप चौदह वर्ष के वनवास का व्रत पालन कर लौट नहीं आते, तब तक ये अयोध्या में राज्य करेंगी।’’
‘‘पर तुम क्यों नहीं करोगे?’’
‘‘भैया! मैंने वह राज्य पिताजी से प्राप्त कर तुम्हें लौटा दिया है। तुम जब तक वहाँ नहीं आते, ये राज्यासीन रहेंगी और इनका अनुचर बनकर मैं राज्य-कार्य देखूँगा।’’
इस पर वशिष्ठजी बोल उठे, ‘‘हाँ! यह ठीक है। भरत ने राज्य लिया और फिर बड़े भाई के चरणों मे अर्पण कर दिया। भाई चौदह वर्ष तक आ नहीं सकते; इस कारण भाई के अनुचर तब तक कार्य चलायें। भाई की ये पादुका तब तक अपने स्वामी का कार्य चलायेंगी।’’
इस प्रकार भरत को राम ने लौटा दिया। भरत बड़े भाई की पादुका ले अयोध्या लौट गया।
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