उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
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कुलवन्त को भारत लौटे एक मास हो चुका था। सूसन को पत्र तो उसने दिल्ली पहुँचने के पहले ही दिन लिखा था उसका उत्तर एक सप्ताह में आ जाना चाहिये था। जब दो सप्ताह तक भी फ्रांस से कोई उत्तर नहीं आया तो उसने इस बात को मस्तिष्क से निकाल दिया था।
एक दिन कुलवन्त ने महिमा को बताया, ‘‘मैं इस बार युरोप गया था तो अमृत से दो दिन निरन्तर मिलने का अवसर मिला। उसको उसकी छटी बीवी ने भी त्याग दिया था और पाँचवी बीवी उससे सुलह करने का यत्न कर रही थी।’’
महिमा मुस्कराकर चुप रही। गरिमा ने हँसते हुए पूछा, ‘‘तो क्या सातवीं मिलने से पहले ही छुट्टी हो गयी हैं?’’
‘‘मैं समझता हूँ कि अब और कोई मिलेगी भी नहीं। कारण यह कि वह चालीस वर्ष की वयस् का हो गया है। पहले वह स्त्रियों से ऊबा करता था और अब स्त्रियाँ उससे ऊबने लगी है। इस बात की सचाई को वह समझ गया प्रतीत होता है। इसी कारण वह पुनः फ्रांसीसी बीवी से सुलह कर लेने पर तैयार हो गया था। कदाचित् वह अपनी पाँचवी पत्नी के साथ किसी विदेश में भ्रमण कर रहा है। बीस-बाईस दिन हुए तो मैंने उसे एक पत्र लिखा था। उसका कोई उत्तर नहीं आया।’’
महिमा ने कहा, ‘‘आप अपने भाई साहब की बहुत चिन्ता करते प्रतीत होते हैं। मैं समझती हूँ कि वह आपकी चिन्ता के पात्र नहीं है।
कुलवन्त समझा कि महिमा को पति की बात में रुचि नहीं।
इसके अगले दिन वह अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि उसके टेलीफोन की घण्टी बजी। उसने टेलीफोन उठा सुना। टेलीफोन में उसका अफसर कह रहा था, ‘‘कुलवन्तसिंह ।’’
‘‘यस सर।’’
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