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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


एक अन्य सन्तान हुई। यह लड़की थी। वह भी सामान्य रूप-रेखा रखती थी। इससे तो कैकसी की निराशा बहुत बढ़ गयी। एक दिन उसने अपने पति से कहा, ‘‘महाराज! मैं तो आपके लोकपाल पुत्र को देख, वैसा ही पुत्र पाने की इच्छा से आपके आश्रम में आयी थी और आपसे प्राप्त इस सन्तान को देख तो मुझे अत्यन्त निराशा हुई है।’’

महर्षि विश्रवा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘सुश्रीणि! सन्तान उस साँचे के अनुसार ही बनती है जिसमें वह नौ मास तक गर्भ के काल में रहती है। जैसी मनोभावना स्त्री की उस काल में होती है, उस भावना को पूर्ण करने वाली उसकी सन्तान बन जाती है।

‘‘तुमने कुबेर की माता को देखा नहीं। कभी गयी हो उसकी कुटिया में?’’

‘‘नहीं भगवन्! मेरा विचार है कि वह मुझसे रुष्ट होगी। मैंने उनके भाग पर अधिकार किया है।’’

‘‘नहीं देवी! ऐसी कोई बात नहीं। वह तुमसे रुष्ट नहीं। कुबेर की माता अब और सन्तान नहीं चाहती। इस कारण वह मेरी कुटिया में नहीं आती।

‘‘यदि वह आती तो अवश्य सन्तान-रूपी फल पाती। तुम उसके भाग का कुछ भी नहीं ले रहीं। उसके भाग की वस्तु मुझसे संचित रहती है। वह मेरे भोज का रूप हो रही है।’’

‘‘तो वह बहुत सुन्दर है?’’

‘‘हाँ। मन और शरीर से कदाचित तुम उससे अधिक सुन्दर हो, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि गर्भ-काल में तुम अपने मन को कुत्सित विचारों से भर कर रखती हो। इससे तुम्हारे कोख में अच्छा मन और शरीर बन नहीं पाया।

‘‘पहले, दशग्रीव के समय तुम ईर्ष्या, द्वेष को मन में जोहती रही हो और आसुरी प्रवृत्ति का पुत्र हो गया। आसुरी शरीर, मन और बुद्घि बनी है और वैसी ही आत्मा उस शरीर में आ गयी है। यह दशग्रीव राजसी प्रवृत्ति का पुत्र है। अब भी वह वन और वाटिकाओं में पशुओं को मारने में हर्ष और उल्लास अनुभव करता है। तुमने गर्भकाल में उसका शरीर बनाया है, परन्तु उसमें वैसी ही आत्मा अपने कर्म-फलों को लिये हुए आ गयी है।

‘‘दूसरी सन्तान के समय तुम तामसी विचारों को जोहती रही प्रतीत होती थीं और तुम्हारा लड़का तामसी स्वभाव का बन गया है।

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